Wednesday, February 9, 2011

जिस प्रार्थना में मांग है, क्या वह प्रार्थना है?


कुदरतन जो पैदल चलता है, वो ईश्वर से साईकिल मांगता है? अब पैदल चलने वाला ईश्वर से फरारी की मांग कर सके इसके लिए उसका बहुत ही ईमानदार होना बहुत जरूरी है। ईमान यानि धर्म। यानि धार्मिक होना बहुत जरूरी है। तो क्या छोटी-छोटी इच्छाओं वाले धार्मिक नहीं होते? ये तो निहायत ही जायज लगता है कि पैदल चलने वाला भगवान से साईकिल मांगे, लेकिन अपनी मांग को अपना अधिकार मानने का जायजपना रखना ही किसी धार्मिक की भ्रष्टता है। मांगने में कैसा अधिकार? इसलिए कहा कि वही सरल ह्दय पैदल चलने वाला, सच्चा धार्मिक ही ईश्वर से फरारी या चन्द्रमा तक जाने वाले स्कूटर की मांग कर सकता है।
इच्छा रखना मात्र ही भ्रष्टता है। अब पैदल चलने वाला साईकिल की मांग करता है, साईकिल मिल जाने पर मोटरसाईकिल की मांग रखता है, मोटरसाईकिल मिल जाने पर कार और कार मिल जाने पर हवाई जहाज। आम लोग इस चक्र को ही जिन्दगी में तरक्की करना कहते हैं। लेकिन क्या यह भ्रष्टाचार का कुचक्र नहीं। पैदल चलने वाला थक जाता है, समय लगता है इसलिए साईकिल की मांग करता है। साईकिल शरीर से ही चलती है, उससे प्रदूषण नहीं होता। मोटरसाईकिल पाते ही वह साईकिल को भूल जाता है और यह भी कि मोटरसाईकिल धुंआ छोड़ती है, प्रदूषण फैलाती है। पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं मानसिक प्रदूषण भी। मोटरसाईकिल मालिक, साईकिल चलाने वाले को हिकारत की दृष्टि से देखने लगता है, कार वाला मोटरसाईकिल वाले को। इस भ्रष्ट कुचक्र का कोई अंत नहीं है, तो जब भी कोई ‘‘इच्छा’’ खड़ी हो  या प्रार्थना में मांग आये, सोचें कि यह किस कुचक्र में ले जायेगी।