।। वृत्तिसारूप्यमितरत्र
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पतंजलि का तीसरे सूत्र के अर्थअनुक्रम में चौथे सूत्र के अनुसार, उस समय दृष्टा पुरुष की चित्त-वृत्तियों से ही सारूप्यता रहती है।
तीसरे सूत्र में कहा गया कि योग चित्त की वृत्तियों का निरोधोपरांत दृष्टा पुरुष अपने मूल स्वरूप में स्थित रहता है। इस सूत्र में उससे आगे की बात है कि यदि चित्त की वृत्तियों का निरोध नहीं किया जाता। चित्त की वृत्तियों को यथार्थतः नहीं जान लिया जाता है तो ये वृत्तियाँ ही चेतनापुरुष के चित्त पर हावी होकर कर्ताधर्ता बनी दिखती हैं। उस समय दृष्टा यानि चेतनापुरुष के चित्त की वृृत्तियों से एकरूपता रहती है।
सांख्य तथा योगदर्शन अनुसार चेतनापुरूषतत्व अनादि, अकर्ता, अहेतुक, अपरिणामी है। शरीर मन या चित्त से इसका संयोग ही माया है।