Wednesday, September 22, 2010
बुल्ले शाह की अदभुत वाणी
मक्के गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ जुमा पढ़ आईये
गंगा गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ गोते खाईये
गया गयां गल मुक्दी नाहीं भले सौ सौ पंड पढ़ाईये
बुल्ले शाह गल ताइयों मुक्दी जदो "मैं" नूं दिलों गंवाईये
मक्का जाने से बात खत्म नहीं होती भले ही सौ सौ जुमे की नमाजें पढ़ लें। गंगा जाने से भी बात खत्म नहीं होती चाहे सौ सौ डुबकियां स्नान कर लें। गया जाकर सौ सौ पंडों से पिंडदान करवाने से भी बात खत्म नहीं होती। बात तो वहां खत्म होती है जब हम अहं को खो दें।
पढ़ पढ़ आलम पागल होया, कदी अपने आप नू पढ़या नईं
जा जा वड़दा मंदिर मसीतां, कदी अपने आप चे वड़या नई
एवईं रोज शैतान नाल लड़दा, कदी अक्स अपने नाल लड़या नई
बुल्ले शाह आसमानी उड दियां फड़दा, जेड़ा घर बैठा उह नूं फड़िया नईं
सारी दुनियां पोथी पुराण पढ़ पढ़ पागल हो रही है कोई अपने आप को पढ़ता ही नहीं। लोग मन्दिर मस्जिदों में घुस घुस कर भीड़ें लगा रहें हैं पर अपने भीतर घुस के देखने की खबर किसी को नहीं। लोग, रोज ही तरह तरह की बुराईयों को शैतान की जान, उनसे लड़ते रहते हैं पर अपनी ही छवि के दोष नहीं देखते। बुल्लेशाह कहते हैं कि हम आसमानी बातों की खोज खबर लेते रहते हैं पर जो हमारे भीतर ही बैठा है उसे कभी नहीं पकड़ते।
बे बोलदे दी तेनू समझ है ना, जेड़ा नित तेरे विच बोल दा ई
भुला आप फिरे बोले बाहर उसनू, वांगू मुर्गिया दें कूड़ा फोलदा ई
भला बुझ हां केड़ा विच है तेरे, शायद ओ ही होवे जेनू तू तौल दा ई
बुल्ला शाह जुदा नहीं रब ते थों, आपे वाज मारयां ते बोलदा ई
जो मौन ही हो रहता है उसकी तुझे कोई समझ नहीं है तो यह प्रश्न करने की कोशिश कर जो तुझसे बोल रहा है... जो तुझसे अभिव्यक्त हो रहा है वह क्या है? अपने आप को भुलाकर तू उसे बाहर उसी तरह ढूंढ रहा है जैसे मुर्गिंया कचरे में मुंह मार मार कर भोजन ढूंढती रहती हैं। बुल्लेशाह कहता है कि ईश्वर तुझसे अलग नहीं.. वो ही तुझमें पुकारता भी है... और उसका जवाब भी देता है।
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