Tuesday, September 22, 2009

क्‍या यहां आप अपने क्षुद्र अहंकार को जीने के लिए ही हैं ?

तीन तरह के बल हैं शरीर, मन और अहसास। जब तक ये इकट्ठे, बराबर, एकसमान समस्वरता से विकसित नहीं होते, ये उच्च बलों से एक स्थिर और सतत सम्पर्क में नहीं बना सकते। तो हमारे काम (‘‘वर्क’’) में  सबकुछ उन उच्च बल से सम्पर्क की तैयारी (की जाती) है। यही हमारे काम का लक्ष्य है। उच्च ऊर्जांएँ चाहती तो हैं पर वह देह के तल पर तब तक नहीं आ सकती जब तक कोई काम (‘‘वर्क’’) न करे। काम करने से ही आप अपने उद्देश्य को पूरा कर पाएंगे और ब्रह्मांण्ड के जीवन में शामिल हो पाएंगे और यही है वह जिससे आप अपने जीवन को अर्थ और महत्व दे सकते हैं। अन्यथा आप केवल अपने क्षुद्र अहंकार को जीने के लिए ही हैं और आपके जीवन का कोई अर्थ नहीं है।
- जैने द साजेम्न

मूल स्रोत: 

Monday, September 21, 2009

एक जिज्ञासु मन

हदय की सच्चाईयों के लिए हमारे भीतर ही एक जिज्ञासु मन है। इसे खोजें, और जीवन ने जो समस्याएं दी हैं उनके निराकरण के लिए इसे प्रयास करने दें। इसे चीजों और घटनाओं के निचोड़ तक पहुंचने की कोशिश करने दें, यहाँ तक कि इसे स्वयं के भीतर तक पैठने दें। यदि व्यक्ति दृढ़तापूर्वक कारणों के बारे में सोचता-समझता है, तो चाहे वह समस्याओं के निराकरण के लिए किसी भी मार्ग का अनुसरण करने वाला हो, वह अनिवार्यतः अन्ततः स्वयं तक ही पहुँच जायेगा, और उसे समस्या का हल वहाँ से शुरू करना होगा - जहाँ ये प्रश्न उठते हैं कि वह स्वयं अपने में क्या है? उसके चारों ओर जो जगत है उसमें उसका क्या स्थान है?
- जी आई गुरजियफ
मूल स्रोत:  www.gurdjieff.org 

‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 9

  • कगार तक भरने के पहले ही ठहर जाना उत्तम है।
  • अगर तलवार चाकू को अत्यधिक धारदार बनाएंगे तो वह जल्दी ही कुंद भी हो जाएंगे या सबल नहीं रहेंगे।
  • धन और हीरे पन्नों का कोई संग्रह संचय करे तो वह हमेशा के लिए कभी भी उन्हें सुरक्षित नहीं रख पाएगा।
  • धन सम्पत्ति और पदवियों-मान-सम्मान पर दावा करने वालों का विपत्तियाँ अनुसरण करती हैं।
  • काम खत्म हो जाये तो निवृत्त हो जाओ।
यही स्वर्गीय तरीके हैं।


मूल सामग्री : http://www.iging.com/laotse/LaotseE.htm#14

Sunday, September 20, 2009

‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 8

  • महान भले लोग पानी की तरह होते हैं।
पानी करोड़ों चीजों को जिन्दगी देता है पर वो इसके लिए कोशिश नहीं करता।
वह उन जगहों पर भी बह जाता है जो मनुष्य के लिए अगम्य हैं, इसी तरह परमात्मा है।
  • घर धरती से लगा हुआ , धरती पर ही बनायें।
  • ध्यान में, मन की गहराईयों में उतरें।
  • लोगों से व्यवहार में मृदु और करूणायुक्त बनें।
  • बोलने में सच्चे रहें।
  • शासन में नाममात्र हो रहें।
  • दैनिक जीवन में सक्षम और योग्य रहें।
  • कर्म में, समय और मौसम का ध्यान रखें।
  • लड़ें-झगड़ें नहीं, आरोपी न बनें।
मूल सामग्री : http://www.iging.com/laotse/LaotseE.htm#14

Saturday, September 19, 2009

‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 7

  • स्वर्ग और धरती सदा रहते हैं...स्वर्ग और धरती हमेशा क्यों रहते हैं?
       क्योंकि वह अजन्मे हैं, पैदा ही नहीं होते, इसलिए सदा जीवित हैं।
  • साधुजन पीछे ही रहते हैं, इसलिए हमेशा आगे रहते हैं।
  • वह सबसे असम्पकृत, अलग-थलग रहते हैं इसलिए सबके साथ होते हैं।
  • स्वार्थरहित कर्मों के कारण वह सम्पूर्णत्व को प्राप्त रहते हैं।
मूल सामग्री : http://www.iging.com/laotse/LaotseE.htm#14

Friday, September 18, 2009

‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 4 एवं 5

4

  • परमात्मा खोखली बांसुरी की तरह होता है, उसके खोखलेपन से ही सात सुर निकलते हैं। 
  • वह अगाध-अथाह ही अनन्त चीजों का स्रोत है। 
  • वह धारदार को कुंद बनाता है, गांठ का खोल देता है, चौंधियाहट को सौम्य बनाता है और धूल में ही समाया रहता है।
  • वह अनन्त गहरा और गुप्त है पर सदा ही मौजूद रहता है।
  • मुझे नहीं पता वह कहाँ से आया है, पर वह ईश्वरों का भी ईश्वर है।

5
  • धरती और स्वर्ग निष्पक्ष हैं।
  • वह हजारों चीजों को घास-फूस से बने खिलौने के कुत्ते की तरह देखते हैं।
  • इसी तरह भला आदमी निष्पक्ष होता है।
  • स्वर्ग और धरती के बीच का स्थान धौंकनी की तरह होता है। आकार बदलता है पर उसका रूप नहीं। उसे जितना चलाओ उतना ही पैदावार देती है।
  • अधिक शब्द गिनने योग्य नहीं होते।
  • केन्द्र को दृढ़तापूर्वक पकड़े रहो।
मूल सामग्री : http://www.iging.com/laotse/LaotseE.htm#14

Thursday, September 17, 2009

‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 3

  • जो हमें ईश्वर प्रदत्त या सौभाग्यवश मिल गया है उस पर अभिमान न करके, दूसरों के सामने उसकी प्रशंसा, बखान या बढ़ाई न करके, उसे महत्वपूर्ण न मान कर हम दूसरों की ईष्र्या से बचे रह सकते हैं, इस तरह हम झगड़ों से भी बचे रह सकते हैं।
  • यदि हम संग्रहवृत्ति के हैं तो निश्चित ही हमें चिंता भी होगी। जिनके पास खजाना होता है उन्हें ही चोरों की चिंता होती है।
  • संग्रहवृत्ति को खत्म कर हम चैर्य कर्म (चोरी करने के काम, चोरी करन की आदत) को रोक सकते, और कुछ चोरी के डर या चोरी हो जाने से भी भय से भी मुक्त रह सकते हैं।
  • वस्तुओं को चाह की भावना से न देखकर हम मन के भ्रमों से बचे रह सकते हैं। लालसा, लोभ, आशाएं, उम्मीदें पालने से भी मनुष्य परेशान रहता है। लालसा, लोभ, आशाएं, उम्मीदें निश्चित ही अनावश्यक चीजें हैं। जो सहजतापूर्वक मिल जाए उसमें संतोष, शांति का कारक है।
  • भला आदमी मन के भार को हल्का कर, पेट भर भरने की छोटी सी चिंता, इच्छाओं को न्यूनतम कर और अपने संकल्पों को दृढ़ करके - स्वयं के द्वारा शासित रहता है।
  • यदि आदमी ज्ञानशून्य और इच्छाशून्य हो जाए तो तुच्छ-चालाक और कांईंया लोग किसी भी तरह के हस्तक्षेप की कोशिश भी न कर सकेंगे।
  • यदि आदमी ने कुछ भी नहीं किया गया है, तो सब कुछ ठीक ही होगा।

Thursday, September 10, 2009


‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 2




सभी स्वर्ग को सुन्दर कहते हैं केवल इसलिए नरक और कुरूपता भी जन्म ले लेते हैं।

सभी अच्छे को अच्छे के रूप में जानते हैं क्योंकि वहीं बुराई भी है।

इसलिए होना और नहीं होना एक साथ प्रकट होते हैं।

कठिन और सरल एक दूसरे के पूरक हैं।
बड़ा और छोटा एक दूसरे से हैं।
ऊँचा और नीचा एक दूसरे से ऊपर नीचे हैं।
सुर और शोर एक दूसरे को संतुलित करते हैं।
अगला और पिछला एक दूसरे का अनुगमन करता है।

इसलिए संत ‘‘कुछ न करना’’ करते हैं। मौन रहना सिखाते हैं।

क्या ऐसा नहीं होता कि हजारों चीजें बिना प्रकटाये पैदा होती हैं
और बिना रोके या समाप्त किये खत्म हो जाती या रुक जाती हैं?

तो काम करो, पर उसका श्रेय न लो।
काम खत्म हुआ तो खत्म हुआ, फिर उसे याद क्यों रखना?

जो ऐसा होता है, वह हमेशा रहता है।

Saturday, September 5, 2009

ईश्वर क्या है?

ईश्वर क्या है?
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 1

  1. जो कहा जा सकता है वह यथार्थ में या मूलतः ताओ नहीं।
  2. ताओ को यथार्थतः व्यक्त नहीं किया जा सकता।
  3. जिस किसी भी व्यक्ति या वस्तु आदि को जो नाम दिया जाता है वह उसका मूल नाम नहीं होता, संज्ञा मात्र होती है।
  4. उस अनाम ईश्वर से ही स्वर्ग और धरती जैसी चीजें जन्मी।
  5. जिसे नामरूप में ईश्वर या व्यक्त ईश्वर के रूप में जाना जाता है वह ही अन्य हजारों व्यक्त चीजों का जन्मदाता या माता है।
  6. हमेशा कोई वासनाशून्य ही, उस अव्यक्त रहस्य को देख पाता है।
  7. हमेशा कोई इच्छा रखने वाला, उसे व्यक्त रूप में देखता है।
  8. यह दोनों नामों अन्तर (व्यक्त और अव्यक्त) मात्र से एक ही स्रोत प्रकट होते हैं। वो मूल स्रोत गहन है।
  9. वो गहन से भी गहनतम, परम गहन है।
  10. वो सभी रहस्यों का द्वार है।
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लाओत्से ‘‘ताओ तेह किंग’’ एक परिचय


भगवान बुद्ध के समकालीन लाओत्से का जन्म चीन के त्च्यु प्रदेश में ईसा पूर्व 605 में माना जाता है। वह एक सरकारी पुस्तकालय में लगभग 4 दशक तक ग्रन्थपाल रहे। कार्यनिवृत्त होने पर वह लिंगपो पर्वतों पर ध्यान चिन्तन करने निकल गये।

जब 33 वर्षीय कन्फ्यूशियस ने आदरणीय लाओत्से से मुलाकात की थी तब वे 87 वर्ष के थे। कन्फ्यूशियस पर उनके दर्शन का गहरा प्रभाव पड़ा।

उन्हंे आखिरी बार उस समय देखा गया जब वे एक यात्रा के दौरान क्वानयिन दर्रे से बाहर निकल रहे थे। वहां से निकलते वक्त नाके पर खड़े टोलटैक्स अधिकारी या द्वारपाल ने उनसे टैक्स मांगा, धन के अर्थ से परे उस महापुरुष ने उस व्यक्ति को अपने 644 बोध वचनों से समृद्ध किया।

यह किस्सा कुछ वैसा ही जैसा श्री राम के नदी पार करने पर केवल द्वारा मांगा गया शुल्क, जिसके बदले में वे संसार को तारने वाले वचन कहें।

‘लाओत्से’ का अर्थ ‘बूढ़ा दार्शनिक’ होता है, इसके अतिरिक्त एक और अर्थ निकलता है ‘‘बूढ़ा बच्चा’’। उनके ही ये शब्द उनकी छवि गढ़ते हैं:
”जो मूर्तिमान धर्म बन गया, वह छोटे बच्चे जैसा होता है। बिच्छू उसे नहीं डसता, जंगली पशु उस पर नहीं झपटता और हिंस्र पक्षी उसे चोंच नहीं मारता।
उसमें शक्ति और उत्साह मानो उमड़ता रहता है। फिर भी उसे अपने स्त्रीत्व या पुरुषत्व का भान नहीं रहता।“

मुझे जानने वाले इने गिने ही हैं। मेरी कृतियों में श्रेष्ठ धर्म निहित है।
मेरे शब्दों को समझना और उन पर आचरण करना सरल है, फिर भी कोई उसे समझने या आचरण करने में समर्थ नहीं।
ताओ हद्य परिवर्तन का धर्म है। यह दिव्यता का अनुवर्तन है।
सारी दुनिया कुबूल करती है कि ताओ मार्ग श्रेष्ठ है लेकिन यह भी कहती है कि वह बेकार है।
जिस कारण वह बेकार मालूम पड़ता है, वही उसकी श्रेष्ठता है।

यह भी निश्चित नहीं कि यह अक्षरशः लाओत्से के ही शब्द हैं या उस द्वारपाल के अपने शब्दों में लाओत्से के वचनों का भाव अंकित है। बाद में इन वचनों को 81 प्रकरणों में बांटा और उनका नामकरण किया गया। इस ग्रंथ को “ताओ तेह” नाम दिया गया।

लाओत्से के बोधवचनों के वास्तविक भाष्यकार च्युंगत्सी हैं। च्युंगत्सी (सू) ने लाओत्से के वचनों को एक दर्शन के रूप में विश्व को दिया। ताओ मार्ग के अनुयायियों की संख्या बढ़ी और कालांतर में यह एक धर्म ग्रंथ ‘‘ताओ तेह किंग’’ के नाम से पुकारा जाने लगा।

ताओ का अर्थ वेदों के ओंकार के समान है।

लाओत्से के अनुसार -
मैं उसका नाम नहीं जानता, वह तत् है। ताओ में चाहे जो डालिये वह बढ़ेगा नहीं और जितना निकाल लें उसमें कुछ कमी नहीं होती।

यह अर्थ भी उपनिषद के श्लोक - पूर्णमिदं पूर्णमादाय पूणात्मुच्यते......... के समान है।

तेह का अर्थ सहज प्रकाश का प्रकट होने का मार्ग है। ताओ में जानबूझकर, सआयास कुछ करना पाप का मूल माना गया है। इसलिए लाओत्से ने इसे एक धर्म का नाम भी नहीं दिया गया।
लाओत्से पूछता है -
क्या फूल को अपने अंदर खुशबू भरनी या उसके लिए कोशिश करनी पड़ती है? वह सहज रूप में ही अपना जीवन बिताता है।
लोग कहते हैं कि वो सुगंध देता है लेकिन यह तो फूल का स्वभाव है, इसके लिए वह कर्ता नहीं।
लाओत्से कहते हैं यह ”गुण प्रकाश” का मार्ग है।
मनुष्य का सबसे बड़ा धन या साम्राज्य वासनाशून्य हो जाना है। इसके लिए श्रम की जरूरत ही कया है?
क्योंकि ‘कुछ करना चाहिए’ इस भावना को त्यागना है। कुछ होने की भावना से निवृत्ति ही सबसे बड़ा कर्म है।


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साभार: उपरोक्त सामग्री ताओ उपनिषद्, मराठी अनुवाद - मनोहर दिवाण, मराठी से हिन्दी अनुवाद - गोविन्द नरहरि वैजापुरकर, प्रकाशक: सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट वाराणसी से साभार ली जा कर राजेशा द्वारा सरल-सहजीकरण और मूल अर्थों तक पहुँच के भाव से संपादित है।
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