Wednesday, November 16, 2011

धर्मोपदेशक, धर्म गुरू की समस्याएं

एक धर्म गुरू का कार्य वास्तव में बहुत ही मुश्किल है। सीधे ईश्वर से आज्ञा पाये बिना, कोई भी लोगों को शिक्षा या उपदेश नहीं दे सकता। लोग आपको सुनेंगे ही नहीं यदि आप ऐसे ईश्वरप्रदत्त अधिकार के बिना ही धर्मोपदेश देंगे। इन शिक्षाओं के पीछे किसी तरह का बल नहीं होगा, ये निर्बल होंगी। किसी को भी, किन्हीं आध्यात्मिक उपायों या अन्य साधनों से सबसे पहले तो ईश्वर को उपलब्ध होना होगा। तब ईश्वर अधिकृत सामथ्र्य से ही कोई उपदेश दे सकता है। ईश्वर से आज्ञा प्राप्त करने के बाद ही कोई शिक्षक हो सकता है और कहीं भी उपदेश व्याख्यान दे सकता है। वही, जो ईश्वर से इस प्रकार की आज्ञा प्राप्त करता है उसे ही ऐसी शक्तियां भी हासिल होती हैं। केवल तभी वह शिक्षक उपदेशक, मार्गदर्शक का बहुत ही कठिन कार्य निभा सकता है। कभी भी, एक आदमी के लिए, यह कैसे संभव है कि वो अन्य व्यक्ति को संसार के बंधनों से मुक्त कर सके? इस संसार का सृजनकर्ता ने माया रची है, वही एकमात्र ईश्वर, इस माया से आदमी को बचा सकता है। इसके अलावा कोई भी राहत या बचाव नहीं कर सकता सिवा उस महान सद्सत्चितआनन्द के। किसी भी आदमी के लिए यह कभी भी, कैसे संभव है कि जो ईश्वर को ही उपलब्ध ना हो या जिस पर उसकी आज्ञा की मेहर ना हो, जो ईश्वर से प्रगाढ़ दिव्य सबंधों में ना हो, वह कैसे किसी अन्य व्यक्ति को संसार के जेलखाने से आजाद करा सकता है?

रामकृष्ण परमहंस जी कहते हैं मैं एक दिन पंचवटी (एक उद्यान) से गुजर रहा था। वहां चीड़ के वृक्षों का झुरमुट था। वहां से मैंने एक मेंढक के चीत्कारपूर्ण टर्राने की आवाज सुनी। मुझे लगा कि उसे एक सांप ने निगल लिया है। कुछ समय बाद जब मैं उसी राह से लौटा, तब भी मैंने उसकी भयानक चीत्कार सुनी। मैंने सोचा चलो देखते हैं कि बात क्या है, और पाया कि एक पनियल सांप, पानी के सांप ने मेंढक को निगल रखा है। वह पनियल सांप ना तो उसे निगल पा रहा है और ना ही उगल पा रहा है। तो इससे ही मेंढक की भयानक तकलीफ का अंत नहीं हो पा रहा था। मैंने सोचा यदि इस मेंढक को किसी कोबरा सांप ने निगला होता तो यह ज्यादा से ज्यादा दो-चार चीखों में ही शांत हो गया होता। लेकिन यहां केवल साधारण सा पनियल सांप था, तो दोनों, सांप और मेंढक दोनों.... भयावह पीड़ा से गुजर रहे थे। ऐसे ही एक आदमी का अहंकार.... यदि उसका पाला एक सच्चे गुरू से पड़े तो दो चार चीखों जितने कष्ट में ही खत्म हो जाता है। लेकिन यदि गुरू ही कच्चा या अपरिपक्व हो तो गुरू और शिष्य दोनों ही इसी तरह की अनन्त भयानक पीड़ा से गुजरते हैं। शिष्य ना तो अपने अहंकार को छोड़ पाता है ना ही इस संसार के जंजाल से मुक्त हो पाता है। यदि शिष्य एक अक्षम... अयोग्य गुरू के चक्कर में पड़ जाये तो तो वह मुक्ति को नहीं उपलब्ध हो सकता।

आपको ईश्वर नहीं मिलता, ईश्वर आपको उपलब्ध नहीं हो सकता। आप ईश्वर को उपलब्ध होते हैं। क्योंकि समुद्र बूंद में कैसे समायेगा, बूंद को ही सागर में समाना होता है।