Monday, November 9, 2009

रे मन भजो प्रभु का नाम!





रे मन भजो प्रभु का नाम!
जब तक सांस में सांस रहेगी, जग से झूठी आस रहेगी।
कहेगी जुबां दिल के अफसाने, कोई सुने, चाहे माने न माने।
विराने जब रिश्तों पे उतरें, और उम्रें ख्वाबों के पर कुतरें।
वरें अंधेरे जब सन्नाटे, कदम-कदम हो मृत्यु की आहटें।
सुगबुगाहटें हों जब परलोक की, खबर नहीं हो जब उस ओट की।
खोट देखकर जग की रोंएं जब नैना अविराम,
रे मन भजो प्रभु का नाम।

Thursday, November 5, 2009

हकीकत

हमारे आसपास सड़कों और गलियों में मिलने वाले लोगों में से एक बहुत बड़ा प्रतिशत लोग अन्दर से खोखले, खाली हैं, वास्तव में वो मर ही चुके हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि हम उनको देखते नहीं और न उनको जानते हैं। अगर हम यह जान जाएं कि कितनी संख्या में हमारे आसपास ही ऐसे लोग हैं जो मरे हुए हैं और हमारे जीवन पर शासन कर रहे हैं तो हम डर के मारे पागल हो जायेंगे।
- जार्ज इवानोविच गुरजियेफ

Wednesday, November 4, 2009

जलालुददीन रूमी

जलालुद्दीन रूमी का जन्म 1207 में अफगानिस्तान के बल्ख प्रांत में हुआ। उनके पिता स्थानीय तौर पर महत्वपूर्ण अध्येता एवं शिक्षक थे। 1212 के लगभग वह सपरिवार समरकंद चले आये जो उन दिनों तुर्की और पर्शिया की संस्कृतियों का संगम स्थल था।
मुस्लिम देशों के अधिकांश भाग पर मंगोलों के हमलों से मृत्यु और ध्वंस का वातावरण था सो रूमी का परिवार इनसे बचता बचाता पश्मोत्‍त्तर की ओर चला गया।
इस प्रकार उनका परिवार कोन्या (तुर्की) पहुंचा जहां रूमी के पिता को प्रोफेसरशिप मिल गयी जो उनकी मृत्यु 1231 तक जारी रही। पिता की मृत्यु के बाद विश्वविद्यालय में वही प्रोफेसर का पद रूमी को मिल गया।
1244 में रूमी की मुलाकात एक मुहम्मद को चाहने वाले तबरीज के पुत्र खानाबदोश सूफी शमसुद्दीन से हुई। इसके बाद तो वे अभिन्न मित्र रहे। मुलाकात के बाद रूमी के अन्दर का प्रोफेसर तो कम हुआ पर आध्यात्मिक उन्नति होने लगी।
रूमी के छात्र रूमी और शम्स की मित्रता से ईष्र्या करने लगे जिसकी वजह से शम्स को लुप्त होना पड़ा।
शम्स के खो जाने के 40 दिनों बाद , रूमी ने शोकवस्त्र पहन लिये। वे पूरी तरह बदल गये। उनके मुंह से ऐसा काव्य निःसृत होने लगा जो अपूर्व था। वे सूफियों की तरह निंरंतर घूमते हुए नृत्यरत रहते और अभीप्सा और प्रेम के गीत गाते थे, यह सब उनकी अचंभित करने वाली रूपांतरित अवस्था का परिचायक था।
उनका आध्यात्मिक संदेश देशकाल की परिधि से परे था, वे कहते थे - मैं ना तो पूर्व का हूं न पश्चिम का मेरे ह्रदय में किसी तरह की सीमाएं नहीं हैं।

मेरा स्थान, स्थानरहितता है
मेरे चिन्ह, चिन्हरहितता है
न देह, न आत्मा से मेरा संबंध है
अपने प्रिय के प्रेम में
मैंने द्वैत का चोला उतार फेंका है

मेरे देखे दोनों शब्द एक हैं
मैं एक को ही ढूंढता हूं,
केवल एक को ही जानता हूं
केवल एक को ही देखता हूं
केवल एक को ही पुकारता हूं
वही प्रथम है वही अंतिम है
वही बाहर है वह अन्तःपुर में है
मैं प्रेम के प्याले में डूबा हुआ हूं
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मानव का यह शरीर
एक सराय की तरह है
जहां रोज
कोई नया आगंतुक आता है
कुछ आनन्द सा, कुछ अवसाद सा, कुछ कमतर-सा

कभी क्षणिक चेतना भी आती है
उस अतिथि की तरह
जिसके आने की आशा न हो।

पर सबका स्वागत करो, पूछ परख लो -
चाहे वो दुखों की भीड़ हो,
जो स्वेच्छा से आपके घर के
सजावटी सामानों तक को बाहर फेंक
पूरी तरह साफ कर देती है।
पर उससे सम्मानपूर्ण व्यवहार करो।

वो आपको पूरी तरह धोकर
एक नये आनन्द से भर देगी

कुविचारो, शर्म ओर द्वेष से भी
द्वार पर ही हँसते हुए मिलो
और जो भी आये
सभी को अनुग्रहपूर्वक
आमंत्रित करो

क्योंकि प्रत्येक
किसी पथ प्रदर्शक की तरह
भेजा गया है
पीछे से।

1272 में रूमी का देहावसान हो गया। उनकी पुण्यतिथि को सुहागरात की तरह मनाया जाता है, क्योंकि इसी दिन उनका अपने प्रिय से मिलन हुआ।
उनकी काव्य और कहानियां प्रियतम से बिछड़ने और मिलने की गाथा हैं। दिवान-ए शम्स-ए-तबरीज, फिही मा फिही, द मकतब और मजलिस-ए-सबाह उनके रचना संकलन हैं।
अधि‍क जानकारी के लि‍ए देखें
http://www.rumi.org.uk/
http://www.rumionfire.com/


अगर तुम खुद को
केवल, पल भर के लिए भी
जान लेते हो

अगर तुम्हें
अपने बहुत ही खूबसूरत चेहरे की
झलक भर मिल गई है
तो इस मिट्टी के घर में
शायद,
तुम इतनी गहरी नींद में नहीं सो पाओगे।

अपने आनन्द गृह में क्यों नहीं चले जाते
जिसके हर रंध्र से,

तुम्हारा ही प्रकाश
बाहर को फूटता सा है।

जहाँ तुम ही
सदा से ही
रहस्य के खजाने के वाहक रहे हो
सदा के लिए।

क्या तुम यह नहीं जानते?

Monday, November 2, 2009

आदमी और आदमी में अलगाव

क्या हम, लिंग, धर्म, वर्ग, विचार आदि के भेदों के बिना नहीं रह सकते। हमें बचपन से ही भेद करना सिखा दिया जाता है। उच्च वर्ग के लोगों द्वारा निम्न वर्ग के प्रति, उच्च जाति के लोगों द्वारा निम्न जाति के लोगों के प्रति, शक्तिशाली द्वारा निर्बल के प्रति, धनी द्वारा गरीब के प्रति, शिक्षित द्वारा अशिक्षित के प्रति नफरत के बीज बो दिये जाते हैं। आयु के बढ़ने के साथ ही घृणा के पौधे वृक्षों का आकार लेकर आंधियों का आयोजन करने लगते हैं।
इस भेद द्वारा या तो हम अपनी झूठी अहंपूर्ण पहचान गढ़ रहे होते हैं? या ऐसा करके एक विशाल समूह के साथ जुड़ने पर मिलने वाले सुरक्षा, सुविधा और संरक्षण के अहसास के लिए लालायित रहते हैं।
क्या इसी प्रकार के राष्ट्रीय भेद अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों का कारण नहीं? क्या इसी प्रकार के स्थानीय भेद राष्ट्रीय मुद्दे नहीं?
क्या अंतर है अमरीका और मुसलमानों के बीच झगड़ों में और उन संघर्षों में जो हजारों साल पहले आदिम बर्बर समाजों के बीच पशुओं, औरतों को रिझाने जैसे कारणों, और अपने अपने अंधविश्वासों को वरीयता देने के लिए होते थे।
व्यक्ति और व्यक्ति में भेद से तो बहुत ज्यादा नुक्सान की संभावना नहीं रहती पर राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक भीड़ों में अपने आपको सुविधापूर्ण, सुरक्षित और धन्य समझने वाले लोग बड़े-बड़े युद्वों द्वारा सामूहिक विनाशों के कारण बनते हैं।
हमें हमेशा याद रखना चाहिए बांटने वाली चीजों में हमें कभी भी सुरक्षा, सुविधा और सच्ची खुशी हासिल नहीं हो सकती। बांटने वाली चीजें ही संघर्ष, अशांति और अंततः सर्वनाश का कारण होती हैं।