- हमारी आंखें सदा चित्र-विचित्र स्वप्नलोकों में ही रहना चाहती हैं। सतरंगे सपनों से चैंधियां कर हम अंधे ही हो जाते हैं।
- मधुर स्वर, गीत-गान और तरह-तरह की जादूई शब्दों की समरसता के चक्कर और मीठी आवाजों से हम बहरे के समान बेसुध हो जाते हैं।
- हमारी जीभ तरह-तरह के स्वादों में डूबकर पेट तक जाने क्या क्या पहुंचाती रहती है जो हमारे शरीर को अपनी उम्र ही पूरी नहीं करने देती।
- आदमी खत्म हो जाता है, इन्द्रियों के अनुभवों की चाहत कभी खत्म नहीं होती।
- महत्वाकांक्षाओं की दौड़ आदमी को पागल बनाकर छोड़ देती है।
- इसलिए कीमती लोग इन सब चक्करों में नहीं पड़ते।
- साधुजन, जो दिख रहा है उससे नहीं बल्कि अपने विवेक से निर्देशित होते हैं। वह सर्वश्रेष्ठ ही चुनता और उस पर चलता है।
Monday, October 5, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 12
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