Monday, December 10, 2012

तू ना जाने आसपास है खुदा

धुंधला जायें जो मंजिले,
इक पल को तू नज़र झुका
झुक जाये सर जहां वहीं,
मिलता है रब का रास्ता
तेरी किस्मत तू बदल दे,
रख हिम्मत बस चल दे
तेरे साथी मेरे कदमों के हैं निशां
तू ना जाने आसपास है खुदा

खुद पे डाल तू नजर
हालातों से हारकर... कहां चला रे!
हाथ की लकीर को मोड़ता-मरोड़ता,है हौसला रे
तो खुद तेरे ख्वाबों के रंग में,
तू अपने जहां को भी रंग दे,
कि चलता हूं मैं तेरे संग में,
हो शाम भी तो क्या....
जब होगा अंधेरा
तब पायेगा दर मेरा
उस दर पे
फिर होगी तेरी सुबह
तू ना जाने आसपास है खुदा


मिट जाते हैं सबके निशां
बस एक वो मिटता नहीं
मान ले जो हर मुश्किल को मर्जी मेरी
हो हमसफर ना तेरा जब कहीं
साया मेरा रहेगा तब वहीं
तुझसे कभी भी ना इक पल मैं जुदा
तू ना जाने आसपास है खुदा

Tuesday, January 3, 2012

जिन्दगी क्या है?

बच्चे स्कूल जाते हैं या खेल—खिलौनों में डूब जाते हैं। घरवालियॉं झाड़ू—पोंछे, किचन, कपड़े धोने से फुर्सत नहीं पातीं। आदमी मजदूरी, दफ्तरों और धंधों पर लगे हैं। सब व्यस्त रहना चाहते हैं,पता नहीं किससे बचकर? क्यों लोग जिन्दगी से इतने भयभीत हैं? मौत से पहले ही मरते हैं, रोज, सालों तक...क्यों जिन्दगी इतनी भयावह है? या जिन्दगी जीना मेहनती, जुझारू, समझदार लोगों का ही काम है, उनका नहीं, जो इसे बहुत ही तयशुदा, मशीनी ढंग से बिताना चाहते हैं... जिन्दगी जीने से जिनका कोई सरोकार नहीं। जिन्दगी सब कुछ ​निश्चित और सुविधाजनक हो जाना नहीं है। जिन्दगी कुछ पा लेना नहीं है। जिन्दगी कुछ छोड़ देना नहीं है। जिन्दगी पलायन नहीं है। जिन्दगी कुछ बनने की कोशिश करना नहीं है। जिन्दगी कुछ बने रहना नहीं है।