20 श्लोंकों का प्रथम अध्याय
जनक उवाच - कथं ज्ञानमवाप्नोति,
कथं मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्य च कथं प्राप्तमेतद
ब्रूहि मम प्रभो॥१-१॥
वयोवृद्ध राजा जनक, बालक अष्टावक्र से पूछते हैं - हे प्रभु, ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है, वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है, ये सब मुझे बताएं॥१॥
kathaṁ jñānamavāpnoti kathaṁ muktirbhaviṣyati
vairāgyaṁ ca kathaṁ prāptaṁ etad brūhi mama prabho
Janaka: How is knowledge to be acquired? How is liberation to
be attained? And how is dispassion to be reached? Tell me this, sir.
Old king Janak asks the young Ashtavakra - How knowledge is attained, how liberation is attained and how non-attachment is attained, please tell me all this.॥1॥
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अष्टावक्र उवाच ॥
अष्टावक्र उवाच -मुक्तिमिच्छसि चेत्तात्,
विषयान विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोष, सत्यं
पीयूषवद्भज ॥१-२॥
श्री अष्टावक्र उत्तर देते हैं - यदि आपमुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों (वस्तुओं के उपभोग की इच्छा) को विष की तरह त्याग दीजिये। क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिये॥२॥
muktiṁ icchasi cettāta viṣayān viṣavattyaja
kṣamārjavadayātoṣasatyaṁ pīyūṣavad bhaja
Ashtavakra: If you are seeking liberation, my son, shun the
objects of the senses like poison. Practise tolerance, sincerity,
compassion, contentment and truthfulness like nectar.
Sri Ashtavakra answers - If you wish to attain liberation, give up the passions (desires for sense objects) as poison. Practice forgiveness, simplicity, compassion, contentment and truth as nectar.॥2॥
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न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न
वायुर्द्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मानं
चिद्रूपं विद्धि मुक्तये ॥१-३॥
आप न पृथ्वी हैं, न जल, न अग्नि, न वायु अथवा आकाश ही हैं। मुक्ति के लिए इन तत्त्वों के साक्षी, चैतन्यरूप आत्मा को जानिए॥३॥
na pṛthvī na jalaṁ nāgnirna vāyurdyaurna vā bhavān
eṣāṁ sākṣiṇamātmānaṁ cidrūpaṁ viddhi muktaye 1.3
You do not consist of the elements - earth, water, fire, air or even
ether. To be liberated, know yourself as consisting of
consciousness, the witness of these.
You are neither earth, nor water, nor fire, nor air or space. To liberate, know the witness of all these as conscious self.॥3॥
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यदि देहं पृथक् कृत्य
चिति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शान्तो
बन्धमुक्तो भविष्यसि॥१-४॥
यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख, शांति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे॥४॥
yadi dehaṁ pṛthak kṛtya citi viśrāmya tiṣṭhasi
adhunaiva sukhī śānto bandhamukto bhaviṣyasi
॥ अष्टावक्र गीता ॥Ashtavakra Gita
6
If only you will remain resting in consciousness, seeing yourself
as distinct from the body, then even now you will become happy,
peaceful and free from bonds. 1.4
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न त्वं विप्रादिको वर्ण:
नाश्रमी नाक्षगोचर:।
असङगोऽसि निराकारो
विश्वसाक्षी सुखी भव॥१-५॥
आप ब्राह्मण आदि सभी जातियोंअथवा ब्रह्मचर्य आदि सभी आश्रमों से परे हैं तथा आँखों से दिखाई न पड़ने वाले हैं। आप निर्लिप्त, निराकार और इस विश्व के साक्षी हैं, ऐसा जान कर सुखी हो जाएँ॥५॥
na tvaṁ viprādiko varṇo nāśramī nākṣagocaraḥ
asaṅgo'si nirākāro viśvasākṣī sukhī bhava
You do not belong to the brahmin or any other caste, you are not
at any stage, nor are you anything that the eye can see. You are
unattached and formless, the witness of everything - so be happy.
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धर्माधर्मौ सुखं दुखं
मानसानि न ते विभो।
न कर्तासि न भोक्तासि
मुक्त एवासि सर्वदा॥१-६॥
धर्म, अधर्म, सुख, दुःख मस्तिष्क सेजुड़ें हैं, सर्वव्यापक आप से नहीं। न आप करने वाले हैं और न भोगने वाले हैं, आप सदा मुक्त ही हैं॥६॥
dharmādharmau sukhaṁ duḥkhaṁ mānasāni na te vibho
na kartāsi na bhoktāsi mukta evāsi sarvadā
Righteousness and unrighteousness, pleasure and pain are
purely of the mind and are no concern of yours. You are neither
the doer nor the reaper of the consequences, so you are always
free.
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एको द्रष्टासि सर्वस्य
मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।
अयमेव हि ते बन्धो
द्रष्टारं पश्यसीतरम्॥१-७॥
आप समस्त विश्व के एकमात्र दृष्टा हैं, सदा मुक्त ही हैं, आप का बंधन केवल इतना है कि आप दृष्टा किसी और को समझते हैं॥७॥
eko draṣṭāsi sarvasya muktaprāyo'si sarvadā
ayameva hi te bandho draṣṭāraṁ paśyasītaram
You are the one witness of everything, and are always
completely free. The cause of your bondage is that you see the
witness as something other than this.
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अहं कर्तेत्यहंमान
महाकृष्णाहिदंशितः।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं
पीत्वा सुखं भव॥१-८॥
अहंकार रूपी महासर्प के प्रभाववश आप 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मान लेते हैं।'मैं कर्ता नहीं हूँ', इस विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो जाइये॥८॥
ahaṁ kartetyahaṁmānamahākṛṣṇāhidaṁśitaḥ
nāhaṁ karteti viśvāsāmṛtaṁ pītvā sukhī bhava
Since you have been bitten by the black snake, the opinion about
yourself that "I am the doer", drink the antidote of faith in the
fact that "I am not the doer", and be happy.
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एको विशुद्धबोधोऽहं
इति निश्चयवह्निना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं
वीतशोकः सुखी भव॥१-९॥
मैं एक, विशुद्ध ज्ञान हूँ, इस निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान वन को जला दें, इस प्रकार शोकरहित होकर सुखी हो जाएँ॥९॥
eko viśuddhabodho'haṁ iti niścayavahninā
prajvālyājñānagahanaṁ vītaśokaḥ sukhī bhava
Burn down the forest of ignorance with the fire of the
understanding that "I am the one pure awareness", and be happy
and free from distress.
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यत्र विश्वमिदं भाति
कल्पितं रज्जुसर्पवत्।आनंदपरमानन्दः स
बोधस्त्वं सुखं चर॥१-१०॥
जहाँ ये विश्व रस्सी में सर्प की तरह अवास्तविक लगे, उस आनंद, परम आनंद की अनुभूति करके सुख से रहें॥१०॥
yatra viśvamidaṁ bhāti kalpitaṁ rajjusarpavat
ānandaparamānandaḥ sa bodhastvaṁ sukhaṁ bhava
That in which all this appears - imagined like the snake in a rope,
that joy, supreme joy and awareness is what you are, so be
happy.
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मुक्ताभिमानी मुक्तो हि
बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किवदन्तीह सत्येयं
या मतिः सा गतिर्भवेत्॥१-११॥
स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है॥११॥
॥ अष्टावक्र गीता ॥Ashtavakra Gita
9
muktābhimānī mukto hi baddho baddhābhimānyapi
kiṁvadantīha satyeyaṁ yā matiḥ sā gatirbhavet
If one thinks of oneself as free, one is free, and if one thinks of
oneself as bound, one is bound. Here this saying is true,
"Thinking makes it so".
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आत्मा साक्षी विभुः
पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।
असंगो निःस्पृहः शान्तो
भ्रमात्संसारवानिव॥१-१२॥
आत्मा साक्षी, सर्वव्यापी, पूर्ण, एक,मुक्त, चेतन, अक्रिय, असंग, इच्छारहित एवं शांत है। भ्रमवश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है॥१२॥
ātmā sākṣī vibhuḥ pūrṇa eko muktaścidakriyaḥ
asaṁgo niḥspṛhaḥ śānto bhramātsaṁsāravāniva
Your real nature is as the one perfect, free, and actionless
consciousness, the all-pervading witness - unattached to
anything, desireless and at peace. It is from illusion that you
seem to be involved in samsara.
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कूटस्थं बोधमद्वैत-
मात्मानं परिभावय।आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा
भावं बाह्यमथान्तरम्॥१-१३॥
अपरिवर्तनीय, चेतन व अद्वैत आत्मा का चिंतन करें और 'मैं' के भ्रम रूपी आभास से मुक्त होकर, बाह्य विश्व की अपने अन्दर ही भावना करें॥१३॥
kūṭasthaṁ bodhamadvaitamātmānaṁ paribhāvaya
ābhāso'haṁ bhramaṁ muktvā bhāvaṁ bāhyamathāntaram
Meditate on yourself as motionless awareness, free from any
dualism, giving up the mistaken idea that you are just a
derivative consciousness, or anything external or internal.
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देहाभिमानपाशेन चिरं
बद्धोऽसि पुत्रक।
बोधोऽहं ज्ञानखंगेन
तन्निष्कृत्य सुखी भव॥१-१४॥
हे पुत्र! बहुत समय से आप 'मैं शरीर हूँ' इस भाव बंधन से बंधे हैं, स्वयं को अनुभव कर, ज्ञान रूपी तलवार से इस बंधन को काटकर सुखी हो जाएँ॥१४॥
dehābhimānapāśena ciraṁ baddho'si putraka
bodho'haṁ jñānakhaṁgena taḥnikṛtya sukhī Bhava
You have long been trapped in the snare of identification with
the body. Sever it with the knife of knowledge that "I am
awareness", and be happy, my son.
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निःसंगो निष्क्रियोऽसि
त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः।
अयमेव हि ते बन्धः
समाधिमनुतिष्ठति॥१-१५॥
आप असंग, अक्रिय, स्वयं-प्रकाशवान तथा सर्वथा-दोषमुक्त हैं। आपका ध्यान द्वारा मस्तिस्क को शांत रखने का प्रयत्न ही बंधन है॥१५॥
niḥsaṁgo niṣkriyo'si tvaṁ svaprakāśo niraṁjanaḥ
ayameva hi te bandhaḥ samādhimanutiṣṭhati
You are really unbound and actionless, self-illuminating and
spotless already. The cause of your bondage is that you are still
resorting to stilling the mind.
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त्वया व्याप्तमिदं विश्वं
त्वयि प्रोतं यथार्थतः।
शुद्धबुद्धस्वरुपस्त्वं मा
गमः क्षुद्रचित्तताम्॥१-१६॥
यह विश्व तुम्हारे द्वारा व्याप्त किया हुआ है, वास्तव में तुमने इसे व्याप्त किया हुआ है। तुम शुद्ध और ज्ञानस्वरुप हो, छोटेपन की भावना से ग्रस्त मत हो॥१६॥
tvayā vyāptamidaṁ viśvaṁ tvayi protaṁ yathārthataḥ
śuddhabuddhasvarūpastvaṁ mā gamaḥ kṣudracittatām
All of this is really filled by you and strung out in you, for what
you consist of is pure awareness - so don't be small minded.
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निरपेक्षो निर्विकारो
निर्भरः शीतलाशयः।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव
चिन्मात्रवासन:॥१-१७॥
आप इच्छारहित, विकाररहित, घन (ठोस), शीतलता के धाम, अगाध बुद्धिमान हैं, शांत होकर केवल चैतन्य की इच्छा वाले हो जाइये॥१७॥
nirapekṣo nirvikāro nirbharaḥ śītalāśayaḥ
agādhabuddhirakṣubdho bhava cinmātravāsanaḥ
You are unconditioned and changeless, formless and immovable,
unfathomable awareness and unperturbable, so hold to nothing
but consciousness.
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साकारमनृतं विद्धि
निराकारं तु निश्चलं।
एतत्तत्त्वोपदेशेन
न पुनर्भवसंभव:॥१-१८॥
आकार को असत्य जानकर निराकार को ही चिर स्थायी मानिये, इस तत्त्व को समझ लेने के बाद पुनः जन्म लेना संभव नहीं है॥१८॥
sākāramanṛtaṁ viddhi nirākāraṁ tu niścalam
etattattvopadeśena na punarbhavasaṁbhavaḥ
Recognise that the apparent is unreal, while the unmanifest is
abiding. Through this initiation into truth you will escape falling
into unreality again.
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यथैवादर्शमध्यस्थे
रूपेऽन्तः परितस्तु सः।
तथैवाऽस्मिन् शरीरेऽन्तः
परितः परमेश्वरः॥१-१९॥
जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर भी निवास करता है और उसके बाहर भी॥१९॥
yathaivādarśamadhyasthe rūpe'ntaḥ paritastu saḥ
tathaivā'smin śarīre'ntaḥ paritaḥ parameśvaraḥ
Just as a mirror exists everywhere both within and apart from its
reflected images, so the Supreme Lord exists everywhere within
and apart from this body.
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एकं सर्वगतं व्योम
बहिरन्तर्यथा घटे।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म
सर्वभूतगणे तथा॥१-२०॥
जिस प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है, उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है॥२०॥
ekaṁ sarvagataṁ vyoma bahirantaryathā ghaṭe
nityaṁ nirantaraṁ brahma sarvabhūtagaṇe tathā
Just as one and the same all-pervading space exists within and
without a jar, so the eternal, everlasting God exists in the totality
of things.