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Tuesday, August 25, 2009

पतंजलि योगसूत्र सूत्र क्र. 2

।। योगश्चवृत्ति निरोधः।।

चित्त की वृत्तियों का रोध करना, रोकना योग है - यह सामान्य अर्थ है।
दूसरे सूत्र में वह किसी भी आदमी के व्यक्तित्व का वो सिरा पकड़ते हैं जिससे उसके सारे जीवन को समझा जा सकता है। चित्त वृत्तियां - आदतें किसी भी शख्सीयत का एक सिरा है। सामान्यतः आदतों से ही एक आदमी जाना पहचाना जाता है। सारे विभाजन, विघटन या भेद आदतों के कारण हैं।

जो भी व्यक्ति जिस रूप में जाना जाता है वह उसकी आदते हैं। हिन्दू मुसलमान सिख ईसाई होना धार्मिक आदते हैं।

कलाकार, शिक्षक, प्रबंधक, इंजीनियर, वैज्ञानिक, साधु, पंडित ये उनकी रोजमर्रा की कार्मिक आदतें हैं। लोकतंत्रवादी, कांग्रेसी, बीजेपी वाला, समाजवादी, पंूजीवादी ये वैचारिक आदतें हैं। कला, संगीत, दर्शन भी प्राथमिक रूप में आदते ही हैं।

चित्त पर वृत्तियाँ लोहे पर जमे जंग जैसी हैं। अगर लोहे के किसी टुकड़े को प्रयोग हेतु किसी अन्य लोहे के ही यंत्र से जोड़ना है तो उन दोनों के बीच जंग की परत हटानी होगी ताकि वो अच्छी तरह जुड़ सकें, एकाकार हो सकें।
इस सूत्र में कहा गया कि ‘‘चित्त की वृत्तियों का...’’ ‘वृत्ति‘ शब्द का हिन्दी अर्थ ‘धंधा‘ होता है। मन के धंधों के बारे में जानना योग का प्रथम चरण है।

दूसरा शब्द निरोधः का आशय रोधना, रोकना है। इस शब्द को रूढ़ अर्थों में न लेकर विवेकपूर्वक समझना होगा।

आप टेªन या हवाई जहाज से यात्रा करते हैं तो आपने देखा होगा कि एक मोशन फिल्म की तरह कई दृश्य आते जाते दिखते हैं। आनंद आता है। लेकिन मंजिल पर जाकर कोई पूछे कि रास्ते में क्या देखा तो उसके उत्तर में हम कुछ स्पष्ट नहीं कह सकते। बहुत कुछ नजर आता है हरे भरे मंजर, सूखे इलाके, बदबूदार क्षेत्र, सुरंगे, नीले बादल, पानी से भरी नदियां तालाब, सड़ते हुए दलदल।

लेकिन यदि हम पैदल यात्रा पर निकलें और कई स्थानों पर ठहर ठहर पड़ावों में यात्रा करें तो हम पूरी यात्रा का वर्णन; दृश्यों और अनुभवों को शब्दशः लिख सकते हैं।

निरोधः शब्द का आशय यही लगता है। मन की आदतों को रुककर, ठहरकर देखना उनको जानना और उनसे छूट जाना योग है।

वृत्ति से बना एक शब्द है निवृत्ति। किसी चीज से निवृत्त होना यानि छूटना, मुक्त होना, आपने रिटायरमेंट के लिए सेवानिवृत्ति शब्द सुना ही होगा। इस रूप में देखें तो वृत्ति एक अर्थ में बंधना है। वृत्ति या धंधा यानि एक बंधन।

तो चित्त की वृत्ति यानि चित्त की आदतों, धंधों, बंधनों को रोकना, ठहर कर देखना और निवृत्त हो जाना यह पतंजलि के दूसरे सूत्र के प्राथमिक अर्थ हैं।

चित्त और मन दो अलग बातें हैं।
चित्त शब्द चित् से बना है। जहाँ चेतना का प्रसार होता है चित्त है।
मन चित्त का एक अंश मात्र है।
चित्त अन्य अवस्थाओं में अवचेतन सककान्शस, अबोध अनकान्शस और इसके अतिरिक्त भारतीय दर्शन के अनुसार चिदाकाश या अधिचित्प्रदेश सुप्राकान्शस स्फियर भी है जिसमें शब्दातीत की अनुभूति है।