Sunday, August 23, 2009

खुदा और दुआ

खुदा और दुआ पर्यायवाची है। दुआ पूरी हो जाए तो खुदा मिल जाता है। खुदा मिल जाए तो दुआ पूरी हो जाती है।

समझने की बात है, दोनों वाक्यों के अर्थ एक जैसे लगते हैं पर दोनों वाक्यों का अस्तित्व अपने आप में है। इनका सम्पन्न होना, समझने की बात है।
दुआ करने वाला आदमी है। जिससे दुआ की जा रही है वो खुदा है। आदमी दुआ करता है कि मेरा भला हो जाए। तो दुआ में कहा गया एक विचार है कि ‘मेरा भला हो’। दुआ कर आदमी हाथ पर हाथ धर तो नहीं बैठ जाता, सब कुछ खुदा पर तो नहीं छोड़ देता,, साथ-साथ कुछ न कुछ तो करता है।

दुआ में कहे गए वाक्य की दिशा के समानान्तर कर्म करता है। बुराई से बचता है, भला करता है। जितनी संवेदना और शिद्दत से वह दुआ करता है, दुआ आकार लेने लगती है। पहले पहल नगण्य सा, फिर अधूरा और फिर पूरा होता हुआ आकार। पहले बुराई से बचता है, फिर भले की कोशिश करता है, फिर भला बनता है। फिर बनता नहीं, अपने आप भला होने लगता है। संवेदना और त्वरितता बढ़ते बढ़ते दुआ पूरा आकार ले लेती है। आदमी भला हो जाता है, दुआ पूरी हो जाती है।

क्या आदमी भला हो जाए तो, फिर किसी खुदा की जरूरत रह जाती है?

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