Monday, December 14, 2009

तेरा खेल

कोई वजह नहीं है कि तुझे याद किया जाये
और तुझे कोई याद कर भी नहीं रहा है
और तुझे फर्क भी नहीं पड़ता
कि कोई तुझे याद करे ना करे

बस हम जैसे इंसान
दिखावटी अध्यात्म और धर्म के नाम पर
मन के धोखों में
या अपनी निराशाओं के झोंकों में
तुझे याद करते हैं
किसी रोगी की तरह
जिसके मुंह से निकलने वाली
दर्द और बेबसी की आवाजें
उसकी अपनी मर्जी नहीं होतीं
बच्चों और
उसके जैसे अन्य रोगि‍यों के सिवा
उसके पास मंडराते
और चालू, चलते फिरते लोग
उस पर तेरे डर की वजह से
हंसते भी नहीं है

सब मग्न हैं उस खेल में
जिसे बस तू ही खेल की तरह खेलता है
बाकी सब बड़ी गंभीरतापूर्वक अपनी पारियां
टाईमपास कर बिता रहे हैं
बोझ सा लगता है जिन्दगी का खेल
आठ दस घंटें की नौकरी या धंधा पानी
और संडे के संडे सोचना
कि ये सांसों की कहानी
फ्लॉप फिल्म सी
किसी गांव के सिनमा घर में
टाईमपास के लिए इकट्ठे गंवारों में भी
सुनी देखी नहीं जायेगी

हालांकि किसी की जिन्दगी
किसी के लिए फिल्म हो
ये कोई भी नहीं चाहता
फिर भी सबके लिए, सबकी जिन्दगी
एक फिल्मी सीन की तरह है

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