अगर मैं बैठा रहता हूं
या लेटा रहता हूं
तो यह बैठना और लेटना
एकरसता बोरियत लाती है।
मैं चलना शुरू करता हूं
तो पहले पहल
मजा आता है
और दूरियां नापने में ही
सार्थकता समझ आती है।
फिर थकानों से मिलने,
नये नये दृश्य देखने का शगल भी
एकरसता हो जाता है।
मैं चाहता हूं
मैं ठहरूं भी
मैं पुराने ही दृश्य
फिर एक बार देखूं
मैं चाहता हूं
फिर बैठा रहूं
या लेटा रहूं।
फुर्सत के दिनों की तरह।
सारी हवस
पहले-पहल
जरूरतों की शक्ल में ही आती है,
फिर आदत बन जाती है
जरूरतों की राह चलते-चलते,
हवस के जंगल में भटक जाता है आदमी
तो किसी भी चीज को
‘जरूरत की मान्यता’ देने के पहले
आदमी को
दो लाख बार सोचना चाहिये।
छोटी-छोटी देहों में ही, ये सारे ब्रम्हांड बढ़े हैं
अंकुर की नींदों में देखो, कितने सारे वृक्ष खड़े हैं
No comments:
Post a Comment
टिप्पणी