सारी सृष्टि की रचना एक सृष्टा से हुई। धरती, आकाश और सारी प्रकृति अपने आप में पूर्ण है क्योंकि ''उनमें जो वो हैं'' ''उससे इतर कुछ होने की कामना'' का अभाव है। हम भी सम्पूर्ण हो सकते हैं अगर ''हम जो हैं '' उसे ही पर्याप्त रूप से समझ लें। इस सम्पूर्णता में रहना ही नैतिकता है, इस सम्पूर्णता से भटकना ही अनैतिकता है, भ्रष्टता है। जब इंसान अपने संपूर्णत्व को जान लेता है तो ही उसे सारी मानवजाति और सारी सृष्टि के प्रत्येक जीव अजीव का महत्व भी ज्ञात होता है... उनकी सम्पूर्णता का भी भान होता है.. यह सहज व्यवहार ही विनम्रता है। और विनम्रता किसी भी उत्कृष्टता का मूल है, आधार है।
ताओ तेह किंग 39
ये चीजों प्राचीन काल में एक ही से जन्मी। आकाश सम्पूर्ण है और साफ है। धरती सम्पूर्ण है और सुस्थिर है। आत्मा सम्पूर्ण और सबल है। घाटी सम्पूर्ण है और भरी पूरी है। दसियों हजारों चीजें सम्पूर्ण और जिन्दा हैं। राजा और देवता सम्पूर्ण हैं, और देश में खरापन है। यह सभी सम्पूर्णता की नैतिकता में हैं। आकाश की पारदर्शिता उसे गिरने से बचाती है। पृथ्वी का ठोसपन उसे खंडखंड होने से बचाता है! आत्मा की सुदृढ़ता उसे इस्तेमाल होने से बचाती है! घाटी की सम्पूर्णता उसे सूखे से बचाती हैं! दसियों हजारों चीजों की बढ़वार उन्हें मुरझाने से बचाती है। राजा का नेतृत्व और देवता देश को पतन में जाने से बचाते हैं। इसलिए ही विनम्रता ही उत्कृष्टता का मूल है। नियम ऊंचाईयों का आधार हैं। इनके बिना राजकुमार और देवता अपने आपको अनाथ, विधुर-विधवा, या निरर्थक विचारते हैं। क्याये लोग विनम्रता पर निर्भर नहीं हैं। बहुत ही अधिक सफलता का कोई लाभ नहीं ! धातुओं की तरह मत खड़खड़ाओ मत या पत्थरों की घंटियों की तरह खटपट मत करो।
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