कोई वजह नहीं है कि तुझे याद किया जाये
और तुझे कोई याद कर भी नहीं रहा है
और तुझे फर्क भी नहीं पड़ता
कि कोई तुझे याद करे ना करे
बस हम जैसे इंसान
दिखावटी अध्यात्म और धर्म के नाम पर
मन के धोखों में
या अपनी निराशाओं के झोंकों में
तुझे याद करते हैं
किसी रोगी की तरह
जिसके मुंह से निकलने वाली
दर्द और बेबसी की आवाजें
उसकी अपनी मर्जी नहीं होतीं
बच्चों और
उसके जैसे अन्य रोगियों के सिवा
उसके पास मंडराते
और चालू, चलते फिरते लोग
उस पर तेरे डर की वजह से
हंसते भी नहीं है
सब मग्न हैं उस खेल में
जिसे बस तू ही खेल की तरह खेलता है
बाकी सब बड़ी गंभीरतापूर्वक अपनी पारियां
टाईमपास कर बिता रहे हैं
बोझ सा लगता है जिन्दगी का खेल
आठ दस घंटें की नौकरी या धंधा पानी
और संडे के संडे सोचना
कि ये सांसों की कहानी
फ्लॉप फिल्म सी
किसी गांव के सिनमा घर में
टाईमपास के लिए इकट्ठे गंवारों में भी
सुनी देखी नहीं जायेगी
हालांकि किसी की जिन्दगी
किसी के लिए फिल्म हो
ये कोई भी नहीं चाहता
फिर भी सबके लिए, सबकी जिन्दगी
एक फिल्मी सीन की तरह है
Monday, December 14, 2009
Saturday, December 5, 2009
तू ही रचैया है
उम्मीद के साहिल छूट गये, भंवरों के आगोश में नैया है
तूफां में उलझी कश्तियों का, सदा तू ही रहा खेवैया है
मेरा होना, ना होना क्या, सब तेरी मर्जी तेरी रजा
ये सजा बने या मजा बने, इस बात का तू ही रचैया है
तन मन धन के रिश्ते नाते, सब अर्थी तक ही हैं जाते
तुझसे जो रिश्ता वही असली, बाकी सब धूप है छैंयां है
इच्छाओं वेश्याओं संग, जो रमा रचा वो कहां बचा
तेरी बंसी सुनकर जो जी लीं, उन गोपियों का तू कन्हैया है
Monday, November 9, 2009
रे मन भजो प्रभु का नाम!
रे मन भजो प्रभु का नाम!
जब तक सांस में सांस रहेगी, जग से झूठी आस रहेगी।
कहेगी जुबां दिल के अफसाने, कोई सुने, चाहे माने न माने।
विराने जब रिश्तों पे उतरें, और उम्रें ख्वाबों के पर कुतरें।
वरें अंधेरे जब सन्नाटे, कदम-कदम हो मृत्यु की आहटें।
सुगबुगाहटें हों जब परलोक की, खबर नहीं हो जब उस ओट की।
खोट देखकर जग की रोंएं जब नैना अविराम,
रे मन भजो प्रभु का नाम।
जब तक सांस में सांस रहेगी, जग से झूठी आस रहेगी।
कहेगी जुबां दिल के अफसाने, कोई सुने, चाहे माने न माने।
विराने जब रिश्तों पे उतरें, और उम्रें ख्वाबों के पर कुतरें।
वरें अंधेरे जब सन्नाटे, कदम-कदम हो मृत्यु की आहटें।
सुगबुगाहटें हों जब परलोक की, खबर नहीं हो जब उस ओट की।
खोट देखकर जग की रोंएं जब नैना अविराम,
रे मन भजो प्रभु का नाम।
Thursday, November 5, 2009
हकीकत
हमारे आसपास सड़कों और गलियों में मिलने वाले लोगों में से एक बहुत बड़ा प्रतिशत लोग अन्दर से खोखले, खाली हैं, वास्तव में वो मर ही चुके हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि हम उनको देखते नहीं और न उनको जानते हैं। अगर हम यह जान जाएं कि कितनी संख्या में हमारे आसपास ही ऐसे लोग हैं जो मरे हुए हैं और हमारे जीवन पर शासन कर रहे हैं तो हम डर के मारे पागल हो जायेंगे।
- जार्ज इवानोविच गुरजियेफ
Wednesday, November 4, 2009
जलालुददीन रूमी
जलालुद्दीन रूमी का जन्म 1207 में अफगानिस्तान के बल्ख प्रांत में हुआ। उनके पिता स्थानीय तौर पर महत्वपूर्ण अध्येता एवं शिक्षक थे। 1212 के लगभग वह सपरिवार समरकंद चले आये जो उन दिनों तुर्की और पर्शिया की संस्कृतियों का संगम स्थल था।
मुस्लिम देशों के अधिकांश भाग पर मंगोलों के हमलों से मृत्यु और ध्वंस का वातावरण था सो रूमी का परिवार इनसे बचता बचाता पश्मोत्त्तर की ओर चला गया।
इस प्रकार उनका परिवार कोन्या (तुर्की) पहुंचा जहां रूमी के पिता को प्रोफेसरशिप मिल गयी जो उनकी मृत्यु 1231 तक जारी रही। पिता की मृत्यु के बाद विश्वविद्यालय में वही प्रोफेसर का पद रूमी को मिल गया।
1244 में रूमी की मुलाकात एक मुहम्मद को चाहने वाले तबरीज के पुत्र खानाबदोश सूफी शमसुद्दीन से हुई। इसके बाद तो वे अभिन्न मित्र रहे। मुलाकात के बाद रूमी के अन्दर का प्रोफेसर तो कम हुआ पर आध्यात्मिक उन्नति होने लगी।
रूमी के छात्र रूमी और शम्स की मित्रता से ईष्र्या करने लगे जिसकी वजह से शम्स को लुप्त होना पड़ा।
शम्स के खो जाने के 40 दिनों बाद , रूमी ने शोकवस्त्र पहन लिये। वे पूरी तरह बदल गये। उनके मुंह से ऐसा काव्य निःसृत होने लगा जो अपूर्व था। वे सूफियों की तरह निंरंतर घूमते हुए नृत्यरत रहते और अभीप्सा और प्रेम के गीत गाते थे, यह सब उनकी अचंभित करने वाली रूपांतरित अवस्था का परिचायक था।
उनका आध्यात्मिक संदेश देशकाल की परिधि से परे था, वे कहते थे - मैं ना तो पूर्व का हूं न पश्चिम का मेरे ह्रदय में किसी तरह की सीमाएं नहीं हैं।
मेरा स्थान, स्थानरहितता है
मेरे चिन्ह, चिन्हरहितता है
न देह, न आत्मा से मेरा संबंध है
अपने प्रिय के प्रेम में
मैंने द्वैत का चोला उतार फेंका है
मेरे देखे दोनों शब्द एक हैं
मैं एक को ही ढूंढता हूं,
केवल एक को ही जानता हूं
केवल एक को ही देखता हूं
केवल एक को ही पुकारता हूं
वही प्रथम है वही अंतिम है
वही बाहर है वह अन्तःपुर में है
मैं प्रेम के प्याले में डूबा हुआ हूं
-----------
मानव का यह शरीर
एक सराय की तरह है
जहां रोज
कोई नया आगंतुक आता है
कुछ आनन्द सा, कुछ अवसाद सा, कुछ कमतर-सा
कभी क्षणिक चेतना भी आती है
उस अतिथि की तरह
जिसके आने की आशा न हो।
पर सबका स्वागत करो, पूछ परख लो -
चाहे वो दुखों की भीड़ हो,
जो स्वेच्छा से आपके घर के
सजावटी सामानों तक को बाहर फेंक
पूरी तरह साफ कर देती है।
पर उससे सम्मानपूर्ण व्यवहार करो।
वो आपको पूरी तरह धोकर
एक नये आनन्द से भर देगी
कुविचारो, शर्म ओर द्वेष से भी
द्वार पर ही हँसते हुए मिलो
और जो भी आये
सभी को अनुग्रहपूर्वक
आमंत्रित करो
क्योंकि प्रत्येक
किसी पथ प्रदर्शक की तरह
भेजा गया है
पीछे से।
1272 में रूमी का देहावसान हो गया। उनकी पुण्यतिथि को सुहागरात की तरह मनाया जाता है, क्योंकि इसी दिन उनका अपने प्रिय से मिलन हुआ।
उनकी काव्य और कहानियां प्रियतम से बिछड़ने और मिलने की गाथा हैं। दिवान-ए शम्स-ए-तबरीज, फिही मा फिही, द मकतब और मजलिस-ए-सबाह उनके रचना संकलन हैं।
अधिक जानकारी के लिए देखें
http://www.rumi.org.uk/
http://www.rumionfire.com/
मुस्लिम देशों के अधिकांश भाग पर मंगोलों के हमलों से मृत्यु और ध्वंस का वातावरण था सो रूमी का परिवार इनसे बचता बचाता पश्मोत्त्तर की ओर चला गया।
इस प्रकार उनका परिवार कोन्या (तुर्की) पहुंचा जहां रूमी के पिता को प्रोफेसरशिप मिल गयी जो उनकी मृत्यु 1231 तक जारी रही। पिता की मृत्यु के बाद विश्वविद्यालय में वही प्रोफेसर का पद रूमी को मिल गया।
1244 में रूमी की मुलाकात एक मुहम्मद को चाहने वाले तबरीज के पुत्र खानाबदोश सूफी शमसुद्दीन से हुई। इसके बाद तो वे अभिन्न मित्र रहे। मुलाकात के बाद रूमी के अन्दर का प्रोफेसर तो कम हुआ पर आध्यात्मिक उन्नति होने लगी।
रूमी के छात्र रूमी और शम्स की मित्रता से ईष्र्या करने लगे जिसकी वजह से शम्स को लुप्त होना पड़ा।
शम्स के खो जाने के 40 दिनों बाद , रूमी ने शोकवस्त्र पहन लिये। वे पूरी तरह बदल गये। उनके मुंह से ऐसा काव्य निःसृत होने लगा जो अपूर्व था। वे सूफियों की तरह निंरंतर घूमते हुए नृत्यरत रहते और अभीप्सा और प्रेम के गीत गाते थे, यह सब उनकी अचंभित करने वाली रूपांतरित अवस्था का परिचायक था।
उनका आध्यात्मिक संदेश देशकाल की परिधि से परे था, वे कहते थे - मैं ना तो पूर्व का हूं न पश्चिम का मेरे ह्रदय में किसी तरह की सीमाएं नहीं हैं।
मेरा स्थान, स्थानरहितता है
मेरे चिन्ह, चिन्हरहितता है
न देह, न आत्मा से मेरा संबंध है
अपने प्रिय के प्रेम में
मैंने द्वैत का चोला उतार फेंका है
मेरे देखे दोनों शब्द एक हैं
मैं एक को ही ढूंढता हूं,
केवल एक को ही जानता हूं
केवल एक को ही देखता हूं
केवल एक को ही पुकारता हूं
वही प्रथम है वही अंतिम है
वही बाहर है वह अन्तःपुर में है
मैं प्रेम के प्याले में डूबा हुआ हूं
-----------
मानव का यह शरीर
एक सराय की तरह है
जहां रोज
कोई नया आगंतुक आता है
कुछ आनन्द सा, कुछ अवसाद सा, कुछ कमतर-सा
कभी क्षणिक चेतना भी आती है
उस अतिथि की तरह
जिसके आने की आशा न हो।
पर सबका स्वागत करो, पूछ परख लो -
चाहे वो दुखों की भीड़ हो,
जो स्वेच्छा से आपके घर के
सजावटी सामानों तक को बाहर फेंक
पूरी तरह साफ कर देती है।
पर उससे सम्मानपूर्ण व्यवहार करो।
वो आपको पूरी तरह धोकर
एक नये आनन्द से भर देगी
कुविचारो, शर्म ओर द्वेष से भी
द्वार पर ही हँसते हुए मिलो
और जो भी आये
सभी को अनुग्रहपूर्वक
आमंत्रित करो
क्योंकि प्रत्येक
किसी पथ प्रदर्शक की तरह
भेजा गया है
पीछे से।
1272 में रूमी का देहावसान हो गया। उनकी पुण्यतिथि को सुहागरात की तरह मनाया जाता है, क्योंकि इसी दिन उनका अपने प्रिय से मिलन हुआ।
उनकी काव्य और कहानियां प्रियतम से बिछड़ने और मिलने की गाथा हैं। दिवान-ए शम्स-ए-तबरीज, फिही मा फिही, द मकतब और मजलिस-ए-सबाह उनके रचना संकलन हैं।
अधिक जानकारी के लिए देखें
http://www.rumi.org.uk/
http://www.rumionfire.com/
अगर तुम खुद को
केवल, पल भर के लिए भी
जान लेते हो
अगर तुम्हें
अपने बहुत ही खूबसूरत चेहरे की
झलक भर मिल गई है
तो इस मिट्टी के घर में
शायद,
तुम इतनी गहरी नींद में नहीं सो पाओगे।
अपने आनन्द गृह में क्यों नहीं चले जाते
जिसके हर रंध्र से,
केवल, पल भर के लिए भी
जान लेते हो
अगर तुम्हें
अपने बहुत ही खूबसूरत चेहरे की
झलक भर मिल गई है
तो इस मिट्टी के घर में
शायद,
तुम इतनी गहरी नींद में नहीं सो पाओगे।
अपने आनन्द गृह में क्यों नहीं चले जाते
जिसके हर रंध्र से,
तुम्हारा ही प्रकाश
बाहर को फूटता सा है।
जहाँ तुम ही
सदा से ही
रहस्य के खजाने के वाहक रहे हो
सदा के लिए।
क्या तुम यह नहीं जानते?
Monday, November 2, 2009
आदमी और आदमी में अलगाव
क्या हम, लिंग, धर्म, वर्ग, विचार आदि के भेदों के बिना नहीं रह सकते। हमें बचपन से ही भेद करना सिखा दिया जाता है। उच्च वर्ग के लोगों द्वारा निम्न वर्ग के प्रति, उच्च जाति के लोगों द्वारा निम्न जाति के लोगों के प्रति, शक्तिशाली द्वारा निर्बल के प्रति, धनी द्वारा गरीब के प्रति, शिक्षित द्वारा अशिक्षित के प्रति नफरत के बीज बो दिये जाते हैं। आयु के बढ़ने के साथ ही घृणा के पौधे वृक्षों का आकार लेकर आंधियों का आयोजन करने लगते हैं।
इस भेद द्वारा या तो हम अपनी झूठी अहंपूर्ण पहचान गढ़ रहे होते हैं? या ऐसा करके एक विशाल समूह के साथ जुड़ने पर मिलने वाले सुरक्षा, सुविधा और संरक्षण के अहसास के लिए लालायित रहते हैं।
क्या इसी प्रकार के राष्ट्रीय भेद अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों का कारण नहीं? क्या इसी प्रकार के स्थानीय भेद राष्ट्रीय मुद्दे नहीं?
क्या अंतर है अमरीका और मुसलमानों के बीच झगड़ों में और उन संघर्षों में जो हजारों साल पहले आदिम बर्बर समाजों के बीच पशुओं, औरतों को रिझाने जैसे कारणों, और अपने अपने अंधविश्वासों को वरीयता देने के लिए होते थे।
व्यक्ति और व्यक्ति में भेद से तो बहुत ज्यादा नुक्सान की संभावना नहीं रहती पर राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक भीड़ों में अपने आपको सुविधापूर्ण, सुरक्षित और धन्य समझने वाले लोग बड़े-बड़े युद्वों द्वारा सामूहिक विनाशों के कारण बनते हैं।
हमें हमेशा याद रखना चाहिए बांटने वाली चीजों में हमें कभी भी सुरक्षा, सुविधा और सच्ची खुशी हासिल नहीं हो सकती। बांटने वाली चीजें ही संघर्ष, अशांति और अंततः सर्वनाश का कारण होती हैं।
इस भेद द्वारा या तो हम अपनी झूठी अहंपूर्ण पहचान गढ़ रहे होते हैं? या ऐसा करके एक विशाल समूह के साथ जुड़ने पर मिलने वाले सुरक्षा, सुविधा और संरक्षण के अहसास के लिए लालायित रहते हैं।
क्या इसी प्रकार के राष्ट्रीय भेद अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों का कारण नहीं? क्या इसी प्रकार के स्थानीय भेद राष्ट्रीय मुद्दे नहीं?
क्या अंतर है अमरीका और मुसलमानों के बीच झगड़ों में और उन संघर्षों में जो हजारों साल पहले आदिम बर्बर समाजों के बीच पशुओं, औरतों को रिझाने जैसे कारणों, और अपने अपने अंधविश्वासों को वरीयता देने के लिए होते थे।
व्यक्ति और व्यक्ति में भेद से तो बहुत ज्यादा नुक्सान की संभावना नहीं रहती पर राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक भीड़ों में अपने आपको सुविधापूर्ण, सुरक्षित और धन्य समझने वाले लोग बड़े-बड़े युद्वों द्वारा सामूहिक विनाशों के कारण बनते हैं।
हमें हमेशा याद रखना चाहिए बांटने वाली चीजों में हमें कभी भी सुरक्षा, सुविधा और सच्ची खुशी हासिल नहीं हो सकती। बांटने वाली चीजें ही संघर्ष, अशांति और अंततः सर्वनाश का कारण होती हैं।
Tuesday, October 27, 2009
24 जो भागदौड़ में ही लगा हो, वह प्रगति नहीं कर सकता।
जो पंजों के बल खड़ा हो, वह स्थिर या दृढ़ नहीं होता।
जो भागदौड़ में ही लगा हो, वह प्रगति नहीं कर सकता।
जो दिखावा करता है, वह प्रबुद्ध नहीं है।
जो खुद को ही सही साबित करने में लगा रहता है वह सम्माननीय नहीं होता।
जो दावा करता है, निश्चित ही उसने कुछ भी अर्जित नहीं किया है।
जो डींगे मारता है, उसने निश्चित ही सत्य नहीं भोगा।
परमात्मा का सच्चा अनुसरणकर्ता कहता है अतिरिक्त भोजन और वस्त्र अनावश्यक बोझ है, जो खुशी नहीं देता, इसलिए वो इनके परे रहता है।
जो भागदौड़ में ही लगा हो, वह प्रगति नहीं कर सकता।
जो दिखावा करता है, वह प्रबुद्ध नहीं है।
जो खुद को ही सही साबित करने में लगा रहता है वह सम्माननीय नहीं होता।
जो दावा करता है, निश्चित ही उसने कुछ भी अर्जित नहीं किया है।
जो डींगे मारता है, उसने निश्चित ही सत्य नहीं भोगा।
परमात्मा का सच्चा अनुसरणकर्ता कहता है अतिरिक्त भोजन और वस्त्र अनावश्यक बोझ है, जो खुशी नहीं देता, इसलिए वो इनके परे रहता है।
Monday, October 26, 2009
23 देर रात गये आया तूफान बहुत देर तक नहीं ठहरता।
मित भाषण श्रेयस्कर है।
प्रकृति भी मितभाषी होती है।
देर रात गये आया तूफान बहुत देर तक नहीं ठहरता।
लगातार कई दिनों तक बारिश हो, ऐसा भी कम ही होता है।
यहाँ तक कि प्रकृति भी एक ही रूप में बहुत देर तक नहीं रहती।
जमीन और आसमान भी एक जैसे नहीं रहते।
तो आदमी के अस्तित्व की क्या कहें?
जो परमात्मा का अनुसरण करता है परमात्मा से ही ऐक्य प्राप्त कर लेता है।
जो पुण्य करता है, पुण्यों को प्राप्त होता है।
जो मार्ग से भटक जाता है, वह नष्ट हो जाता है।
जो परमात्मा का साह्चर्य करता है परमात्मा उसका स्वागत करता है।
जो पुण्यों के साथ साहचर्य करते हैं वह पुण्य भोगते हैं।
जो मार्ग भटकता है वह अपनी इच्छा से भटकने का आनंद भोगता है।
जो किसी पर विश्वास नहीं करता, लोग भी उस पर विश्वास नहीं करते।
जो किसी पर विश्वास नहीं करता, उसका विश्वास कैसे किया जा सकता है?
प्रकृति भी मितभाषी होती है।
देर रात गये आया तूफान बहुत देर तक नहीं ठहरता।
लगातार कई दिनों तक बारिश हो, ऐसा भी कम ही होता है।
यहाँ तक कि प्रकृति भी एक ही रूप में बहुत देर तक नहीं रहती।
जमीन और आसमान भी एक जैसे नहीं रहते।
तो आदमी के अस्तित्व की क्या कहें?
जो परमात्मा का अनुसरण करता है परमात्मा से ही ऐक्य प्राप्त कर लेता है।
जो पुण्य करता है, पुण्यों को प्राप्त होता है।
जो मार्ग से भटक जाता है, वह नष्ट हो जाता है।
जो परमात्मा का साह्चर्य करता है परमात्मा उसका स्वागत करता है।
जो पुण्यों के साथ साहचर्य करते हैं वह पुण्य भोगते हैं।
जो मार्ग भटकता है वह अपनी इच्छा से भटकने का आनंद भोगता है।
जो किसी पर विश्वास नहीं करता, लोग भी उस पर विश्वास नहीं करते।
जो किसी पर विश्वास नहीं करता, उसका विश्वास कैसे किया जा सकता है?
Friday, October 23, 2009
22 मृतप्राय या न होने जैसा हो जाने में ही परम संरक्षण है।
22
बीज में ही वृक्ष छुपा रहता है।
जो पैदा होता है, नष्ट होता है वो फिर पैदा होता है अर्थात् मृत्यु में संरक्षण है।
जो मुड़ा हुआ है, वही सीधा हो सकता है।
जो खाली है, वही भर सकता है।
जो पुराना होता और घिसता है, वही नया हो सकता है।
जितने कम की उम्मीद रखेंगे, उतना ही अधिक मिलेगा।
जितना अधिक पाने की कोशिश करंेगे उतना ही भ्रम में पड़ेंगे।
इसलिए भला आदमी एक ही को अपनाता है और दूजों के लिए उदाहरण बनता है।
वह प्रदर्शन नहीं करता, सामने नहीं आता, इसलिए चैगुना प्रसिद्ध होता है।
अपने आपको सिद्ध करने की कोशिश नहीं करता, इसलिए सभी उसे उत्कृष्ट कहते हैं।
अभिमान नहीं करता, इसलिए सभी जगह मान्य होता है।
डींगंे नहीं मारता, इसलिए उसे नीचा नहीं देखना पड़ता।
वह किसी से लड़ता झगड़ता नहीं, इसलिए उससे भी कोई नहीं लड़ता-झगड़ता।
इसलिए प्राचीन लोग कहते थे:
मृतप्राय या न होने जैसा हो जाने में ही परम संरक्षण है।
तब वह पूर्ण हो जाता है और सब कुछ उसी में समाहित रहता है।
बीज में ही वृक्ष छुपा रहता है।
जो पैदा होता है, नष्ट होता है वो फिर पैदा होता है अर्थात् मृत्यु में संरक्षण है।
जो मुड़ा हुआ है, वही सीधा हो सकता है।
जो खाली है, वही भर सकता है।
जो पुराना होता और घिसता है, वही नया हो सकता है।
जितने कम की उम्मीद रखेंगे, उतना ही अधिक मिलेगा।
जितना अधिक पाने की कोशिश करंेगे उतना ही भ्रम में पड़ेंगे।
इसलिए भला आदमी एक ही को अपनाता है और दूजों के लिए उदाहरण बनता है।
वह प्रदर्शन नहीं करता, सामने नहीं आता, इसलिए चैगुना प्रसिद्ध होता है।
अपने आपको सिद्ध करने की कोशिश नहीं करता, इसलिए सभी उसे उत्कृष्ट कहते हैं।
अभिमान नहीं करता, इसलिए सभी जगह मान्य होता है।
डींगंे नहीं मारता, इसलिए उसे नीचा नहीं देखना पड़ता।
वह किसी से लड़ता झगड़ता नहीं, इसलिए उससे भी कोई नहीं लड़ता-झगड़ता।
इसलिए प्राचीन लोग कहते थे:
मृतप्राय या न होने जैसा हो जाने में ही परम संरक्षण है।
तब वह पूर्ण हो जाता है और सब कुछ उसी में समाहित रहता है।
Thursday, October 22, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 21
परमात्मा का अनुसरण करना महान धर्म और नैतिकता है।
अगम्य और अमूर्त है और फिर भी उसके अनन्त रूपाकार हैं।
आदिकाल से अब तक उसका नाम कोई नहीं भुला पाया।
यह सब जानने के कारण, क्योंकि मैं उसे जानता हूं इसलिए मैं सृजन के मार्ग जानता हूं।
वही अगम्य अमूर्त है।अगम्य और अमूर्त है और फिर भी उसकी अनन्त छवियां हैं।
अगम्य और अमूर्त है और फिर भी उसके अनन्त रूपाकार हैं।
वह धुंधला और काला है और वही सारों का सार है।वह परम सारवान है और अति यथार्थ है इसलिए उसमें श्रद्धा जैसा कुछ रखना झूठ है।
आदिकाल से अब तक उसका नाम कोई नहीं भुला पाया।
यह सब जानने के कारण, क्योंकि मैं उसे जानता हूं इसलिए मैं सृजन के मार्ग जानता हूं।
Wednesday, October 21, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 20
- सीखना और बनावटीपन छोड़ दो और अपनी सभी समस्याओं का अंत करो।
- क्या साधु और शैतान में कोई अन्तर है?
- जिससे दूसरे लोग डर रहें हैं, अवश्य ही उससे मुझे भी डरना चाहिए? यह क्या मूर्खता है?
- अन्य सभी लोग यज्ञ में बैल की बलि के मांस से संतुष्ट हैं। बसंत ऋतु में कुछ लोग उद्यानों में और कुछ छतों पर बैठे आनंदमग्न हैं।
- ऐसे नवजात शिशु सा जिसने अभी मुस्कुराना भी नहीं सीखा, मैं ही प्रवाहित नदी में तिनके सा, यह भी नहीं जानता कि स्वयं मैं कहां हूँ? मैं अकेला हूँ, बिना इस बात के ज्ञान के कि मुझे कहीं जाना भी है या मुझे ही कहीं नहीं जाना है।
- लोगों के पास उनकी जरूरत से ज्यादा है और मेरे पास ही कुछ भी नहीं है।
- मैं मूर्ख हूं, भ्रम में हूं बाकी सब स्पष्ट और चमकदार हैं, बस मैं ही धुंधला, मंदा और दुर्बल हूँ।
- लोग तीखे और चालाक हैं, मैं ही भोला और झल्ला हूँ।
- ओह! मैं ही समुद्र की लहर सा दिशाहीन, और अविश्रांत वायु सा बहता हूं।
- लोग महत्वपूर्ण कामों में व्यस्त हैं, बस मैं उद्देश्यहीन और उदास हूं।
- मैं सर्वथा अलग हूं क्योंकि मैं ही धरती माँ द्वारा पोषित हूँ।
Tuesday, October 20, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 19
- यह सभी अपने आप में बाह्यरूपाकार मात्र हैं, और अपने आप में सम्पूर्ण नहीं:
- झूठी दयालुता और नैतिकता त्याग दो, लोग अपने में ही धर्मनिष्ठता और प्रेम पुनः खोज लेंगे।
- चतुराई त्याग दो, लाभ छोड् दो चोर और डाकू अपने आप खत्म हो जायेंगे।
- यह और महत्वपूर्ण है:
- किसी की यथार्थ प्रकृति को समझ पाना।
- स्वार्थपरता और ज्वलंत इच्छाओं को अपने से अलग-थलग कर पाना।
Friday, October 16, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 18
- जब परमात्मा को भूला दिया जाता है, तब दिखावटी दयालुता और नैतिकता प्रकट करने का फैशन आ जाता है।
- जब पांडित्य और छद्म अक्लमंदी पैदा होते हैं तब महान पाखंड शुरू होते हैं।
- जब अपने घर में शांति नहीं मिलती तब झूठी भक्ति और धार्मिकता का आचरण प्रारंभ किया जाता है।
- जब देश भ्रम और अराजकता में हो तब ईमानदार अधिकारियों का प्रादुर्भाव होता है।
इन सब का तात्पर्य क्या यह नहीं कि असली सिक्कों की कमी होने पर खोटे सिक्के चलन में आ जाते हैं।
- जब पांडित्य और छद्म अक्लमंदी पैदा होते हैं तब महान पाखंड शुरू होते हैं।
- जब अपने घर में शांति नहीं मिलती तब झूठी भक्ति और धार्मिकता का आचरण प्रारंभ किया जाता है।
- जब देश भ्रम और अराजकता में हो तब ईमानदार अधिकारियों का प्रादुर्भाव होता है।
इन सब का तात्पर्य क्या यह नहीं कि असली सिक्कों की कमी होने पर खोटे सिक्के चलन में आ जाते हैं।
Tuesday, October 13, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 17
- जो जरा सा भी मुश्किल होता है उसे कम ही लोग जानते हैं। उनसे भी कम लोग उसे अमल में लाते हैं। और उनसे भी कम लोग विवेक के मार्ग पर बने रहते हैं।
- डरे और भीरू लोग जिन्हें खुद पर ही विश्वास नहीं उन पर विश्वास कैसे किया जा सकता है?
- जब बिना कुछ कहे सुने काम हो जाता है तो लोग लोग अहं से भरकर कहते हैं ”हमने कर दिखाया।“
Monday, October 12, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 16
- खुद को सब चीजों से खाली कर लो।
- मन स्थिर हो।
- जब कोई अपने तक, अपनी वापसी देखता है तो हजारों चीजें प्रकट और विलीन होती दिखती हैं।
- स्रोत की ओर लौटना, स्थैर्य है, जो प्रकृति का अपना तरीका है।
- प्रकृति के तरीके या ढंग अपरिवर्तनीय हैं।
- स्थैर्य (स्थिरता) को जानना ही अंर्तदृष्टि है।
- स्थैर्य (स्थिरता) को न जानना अनिष्ट की ओर ले जाता है।
- स्थैर्य को जानने से मन खुलता है।
- खुले मन से आप हार्दिक होते हैं।
- हार्दिक, ह्रदय से होने पर आप जो करते हैं वह धार्मिक होता है।
- धार्मिक होने पर अप दिव्य को प्राप्त होते हैं।
- दिव्य होने पर ही आप ईश्वर से सायुज्य कर सकते हैं।
- ईश्वर से सायुज्य में सबकुछ निहित है।
Saturday, October 10, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 15
- प्राचीन गुरू गूढ़, रहस्यमय, अगाध गंभीर और अनुक्रियाशील पाये जाते हैं।
- ज्ञान की गहराई अथाह है, क्योंकि वह अथाह है।
- हम जो कुछ भी करते हैं वह प्रकट को ही विस्तार देता विवरण होता है।
- खतरे को भांपता हुआ व्यक्ति कितना सजग होता है।
- मन कभी, मेहमाननवाजी में लगे व्यक्ति-सा सौजन्यपूर्ण होता है।
- मन कभी, पिघलती बर्फ सा घुलनशील होता है।
- मन कभी, अनगढ़ लकड़ी के ठूंठ सा सरल होता है।
- मन कभी, गहरी गुफाओं की तरह खाली होता है।
- मन कभी, मैले तालाब की तरह गंदला होता है।
- कौन इस बात का इंतजार करता है कि गंदलापन तली में बैठ जाए,पानी निथर जाये?
- कौन कर्म की गति में स्थिर बन रहता है?
- परमात्मा की ओर देखने वाला वासनाओं की पूर्ति के मार्ग नहीं ढूंढता।
Friday, October 9, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 14
- देखो, वह दिखता नहीं है - वह रूपाकारों से परे है।
सुनो, वह सुनाई नहीं देता- वह ध्वनियों से परे है।
ग्रहण करो, वह पकड़ाई में नहीं आता - वह अमूर्त है।
यह सब अपरिभाषेय है।
इसलिये ये एक में ही समाहित हैं।
- वह ऊपर से चमकीला नहीं।
वह नीचे से काला नहीं।
वह विवरण से अटूट रूप से जुड़ा सूत्र है।
वह कहीं भी वापस नहीं जाता।
या वह ‘कहीं नहीं’ की ओर वापस जाता है।
वह अरूप का रूप है।
वह अमूर्तता की छवि है।
वह अपरिभाषेय है और कल्पनातीत है।
- उसके आगे चलो तो पाओगे उसका आरंभ कहीं नहीं मिलता।
उसका पीछा करो, तो अंत भी नहीं दिखता।
उस परमात्मा के साथ ही चलो,
इसी क्षण में जिओ।
प्राचीन और आदि का ज्ञान, परमात्मा का सार है।
Tuesday, October 6, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 13
- देह के साथ ही दुर्भाग्य भी आता है, शरीर के बिना कैसा दुर्भाग्य?
- लाभ हानि की परवाह किये बिना अपने आपको पूर्णतः समर्पित कर दो, इससे आप सब चीजों पर विश्वास कर पायेंगे और उनका खयाल रख सकेंगे।
- संसार से वैसे ही प्यार करो जैसे तुम स्वयं से करते हो इस तरह आप सारे संसार की सच्ची देखभाल कर पाएंगें।
Monday, October 5, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 12
- हमारी आंखें सदा चित्र-विचित्र स्वप्नलोकों में ही रहना चाहती हैं। सतरंगे सपनों से चैंधियां कर हम अंधे ही हो जाते हैं।
- मधुर स्वर, गीत-गान और तरह-तरह की जादूई शब्दों की समरसता के चक्कर और मीठी आवाजों से हम बहरे के समान बेसुध हो जाते हैं।
- हमारी जीभ तरह-तरह के स्वादों में डूबकर पेट तक जाने क्या क्या पहुंचाती रहती है जो हमारे शरीर को अपनी उम्र ही पूरी नहीं करने देती।
- आदमी खत्म हो जाता है, इन्द्रियों के अनुभवों की चाहत कभी खत्म नहीं होती।
- महत्वाकांक्षाओं की दौड़ आदमी को पागल बनाकर छोड़ देती है।
- इसलिए कीमती लोग इन सब चक्करों में नहीं पड़ते।
- साधुजन, जो दिख रहा है उससे नहीं बल्कि अपने विवेक से निर्देशित होते हैं। वह सर्वश्रेष्ठ ही चुनता और उस पर चलता है।
Friday, October 2, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 11
- पहिये की परिधि पर फैली तानें, धुरी पर ही टिकी होती हैं
धुरी का खोखलापन ही सारा भार वहन करने में सक्षम होता है - मिट्टी से जब मूर्तियां बनाई जाती हैं तो उनमें उभारों का आधार उनके पीछे का खोखलापन ही होता है।
- मिट्टी के घड़े का खोखलापन ही उसे पानी या अन्य चीजें रखने या सहेजने लायक या उपयोगी बनाता है।
- यदि मकान में खिड़कियां और दरवाजें न हों तो मकान और कब्र में क्या अंतर रहे?
- शून्य और निर्वात चीजों को उपयोगी बनाते हैं।
- जो दिख रहा है ऐसा लगता है कि उससे लाभ मिल रहा है, पर उपयोगी और महत्वपूर्ण वो है जो नहीं होता या नहीं दिखता।
Tuesday, September 22, 2009
क्या यहां आप अपने क्षुद्र अहंकार को जीने के लिए ही हैं ?
तीन तरह के बल हैं शरीर, मन और अहसास। जब तक ये इकट्ठे, बराबर, एकसमान समस्वरता से विकसित नहीं होते, ये उच्च बलों से एक स्थिर और सतत सम्पर्क में नहीं बना सकते। तो हमारे काम (‘‘वर्क’’) में सबकुछ उन उच्च बल से सम्पर्क की तैयारी (की जाती) है। यही हमारे काम का लक्ष्य है। उच्च ऊर्जांएँ चाहती तो हैं पर वह देह के तल पर तब तक नहीं आ सकती जब तक कोई काम (‘‘वर्क’’) न करे। काम करने से ही आप अपने उद्देश्य को पूरा कर पाएंगे और ब्रह्मांण्ड के जीवन में शामिल हो पाएंगे और यही है वह जिससे आप अपने जीवन को अर्थ और महत्व दे सकते हैं। अन्यथा आप केवल अपने क्षुद्र अहंकार को जीने के लिए ही हैं और आपके जीवन का कोई अर्थ नहीं है।
- जैने द साजेम्न
मूल स्रोत:
- जैने द साजेम्न
मूल स्रोत:
Monday, September 21, 2009
एक जिज्ञासु मन
हदय की सच्चाईयों के लिए हमारे भीतर ही एक जिज्ञासु मन है। इसे खोजें, और जीवन ने जो समस्याएं दी हैं उनके निराकरण के लिए इसे प्रयास करने दें। इसे चीजों और घटनाओं के निचोड़ तक पहुंचने की कोशिश करने दें, यहाँ तक कि इसे स्वयं के भीतर तक पैठने दें। यदि व्यक्ति दृढ़तापूर्वक कारणों के बारे में सोचता-समझता है, तो चाहे वह समस्याओं के निराकरण के लिए किसी भी मार्ग का अनुसरण करने वाला हो, वह अनिवार्यतः अन्ततः स्वयं तक ही पहुँच जायेगा, और उसे समस्या का हल वहाँ से शुरू करना होगा - जहाँ ये प्रश्न उठते हैं कि वह स्वयं अपने में क्या है? उसके चारों ओर जो जगत है उसमें उसका क्या स्थान है?
- जी आई गुरजियफ
मूल स्रोत: www.gurdjieff.org
- जी आई गुरजियफ
मूल स्रोत: www.gurdjieff.org
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 9
- कगार तक भरने के पहले ही ठहर जाना उत्तम है।
- अगर तलवार चाकू को अत्यधिक धारदार बनाएंगे तो वह जल्दी ही कुंद भी हो जाएंगे या सबल नहीं रहेंगे।
- धन और हीरे पन्नों का कोई संग्रह संचय करे तो वह हमेशा के लिए कभी भी उन्हें सुरक्षित नहीं रख पाएगा।
- धन सम्पत्ति और पदवियों-मान-सम्मान पर दावा करने वालों का विपत्तियाँ अनुसरण करती हैं।
- काम खत्म हो जाये तो निवृत्त हो जाओ।
मूल सामग्री : http://www.iging.com/laotse/LaotseE.htm#14
Sunday, September 20, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 8
- महान भले लोग पानी की तरह होते हैं।
वह उन जगहों पर भी बह जाता है जो मनुष्य के लिए अगम्य हैं, इसी तरह परमात्मा है।
- घर धरती से लगा हुआ , धरती पर ही बनायें।
- ध्यान में, मन की गहराईयों में उतरें।
- लोगों से व्यवहार में मृदु और करूणायुक्त बनें।
- बोलने में सच्चे रहें।
- शासन में नाममात्र हो रहें।
- दैनिक जीवन में सक्षम और योग्य रहें।
- कर्म में, समय और मौसम का ध्यान रखें।
- लड़ें-झगड़ें नहीं, आरोपी न बनें।
Saturday, September 19, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 7
- स्वर्ग और धरती सदा रहते हैं...स्वर्ग और धरती हमेशा क्यों रहते हैं?
- साधुजन पीछे ही रहते हैं, इसलिए हमेशा आगे रहते हैं।
- वह सबसे असम्पकृत, अलग-थलग रहते हैं इसलिए सबके साथ होते हैं।
- स्वार्थरहित कर्मों के कारण वह सम्पूर्णत्व को प्राप्त रहते हैं।
Friday, September 18, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 4 एवं 5
4
5
- परमात्मा खोखली बांसुरी की तरह होता है, उसके खोखलेपन से ही सात सुर निकलते हैं।
- वह अगाध-अथाह ही अनन्त चीजों का स्रोत है।
- वह धारदार को कुंद बनाता है, गांठ का खोल देता है, चौंधियाहट को सौम्य बनाता है और धूल में ही समाया रहता है।
- वह अनन्त गहरा और गुप्त है पर सदा ही मौजूद रहता है।
- मुझे नहीं पता वह कहाँ से आया है, पर वह ईश्वरों का भी ईश्वर है।
5
- धरती और स्वर्ग निष्पक्ष हैं।
- वह हजारों चीजों को घास-फूस से बने खिलौने के कुत्ते की तरह देखते हैं।
- इसी तरह भला आदमी निष्पक्ष होता है।
- स्वर्ग और धरती के बीच का स्थान धौंकनी की तरह होता है। आकार बदलता है पर उसका रूप नहीं। उसे जितना चलाओ उतना ही पैदावार देती है।
- अधिक शब्द गिनने योग्य नहीं होते।
- केन्द्र को दृढ़तापूर्वक पकड़े रहो।
Thursday, September 17, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 3
- जो हमें ईश्वर प्रदत्त या सौभाग्यवश मिल गया है उस पर अभिमान न करके, दूसरों के सामने उसकी प्रशंसा, बखान या बढ़ाई न करके, उसे महत्वपूर्ण न मान कर हम दूसरों की ईष्र्या से बचे रह सकते हैं, इस तरह हम झगड़ों से भी बचे रह सकते हैं।
- यदि हम संग्रहवृत्ति के हैं तो निश्चित ही हमें चिंता भी होगी। जिनके पास खजाना होता है उन्हें ही चोरों की चिंता होती है।
- संग्रहवृत्ति को खत्म कर हम चैर्य कर्म (चोरी करने के काम, चोरी करन की आदत) को रोक सकते, और कुछ चोरी के डर या चोरी हो जाने से भी भय से भी मुक्त रह सकते हैं।
- वस्तुओं को चाह की भावना से न देखकर हम मन के भ्रमों से बचे रह सकते हैं। लालसा, लोभ, आशाएं, उम्मीदें पालने से भी मनुष्य परेशान रहता है। लालसा, लोभ, आशाएं, उम्मीदें निश्चित ही अनावश्यक चीजें हैं। जो सहजतापूर्वक मिल जाए उसमें संतोष, शांति का कारक है।
- भला आदमी मन के भार को हल्का कर, पेट भर भरने की छोटी सी चिंता, इच्छाओं को न्यूनतम कर और अपने संकल्पों को दृढ़ करके - स्वयं के द्वारा शासित रहता है।
- यदि आदमी ज्ञानशून्य और इच्छाशून्य हो जाए तो तुच्छ-चालाक और कांईंया लोग किसी भी तरह के हस्तक्षेप की कोशिश भी न कर सकेंगे।
- यदि आदमी ने कुछ भी नहीं किया गया है, तो सब कुछ ठीक ही होगा।
Thursday, September 10, 2009
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 2सभी स्वर्ग को सुन्दर कहते हैं केवल इसलिए नरक और कुरूपता भी जन्म ले लेते हैं। |
Saturday, September 5, 2009
ईश्वर क्या है?
ईश्वर क्या है?
‘‘ताओ तेह किंग’’ अध्याय 1
- जो कहा जा सकता है वह यथार्थ में या मूलतः ताओ नहीं।
- ताओ को यथार्थतः व्यक्त नहीं किया जा सकता।
- जिस किसी भी व्यक्ति या वस्तु आदि को जो नाम दिया जाता है वह उसका मूल नाम नहीं होता, संज्ञा मात्र होती है।
- उस अनाम ईश्वर से ही स्वर्ग और धरती जैसी चीजें जन्मी।
- जिसे नामरूप में ईश्वर या व्यक्त ईश्वर के रूप में जाना जाता है वह ही अन्य हजारों व्यक्त चीजों का जन्मदाता या माता है।
- हमेशा कोई वासनाशून्य ही, उस अव्यक्त रहस्य को देख पाता है।
- हमेशा कोई इच्छा रखने वाला, उसे व्यक्त रूप में देखता है।
- यह दोनों नामों अन्तर (व्यक्त और अव्यक्त) मात्र से एक ही स्रोत प्रकट होते हैं। वो मूल स्रोत गहन है।
- वो गहन से भी गहनतम, परम गहन है।
- वो सभी रहस्यों का द्वार है।
लाओत्से ‘‘ताओ तेह किंग’’ एक परिचय
भगवान बुद्ध के समकालीन लाओत्से का जन्म चीन के त्च्यु प्रदेश में ईसा पूर्व 605 में माना जाता है। वह एक सरकारी पुस्तकालय में लगभग 4 दशक तक ग्रन्थपाल रहे। कार्यनिवृत्त होने पर वह लिंगपो पर्वतों पर ध्यान चिन्तन करने निकल गये।
जब 33 वर्षीय कन्फ्यूशियस ने आदरणीय लाओत्से से मुलाकात की थी तब वे 87 वर्ष के थे। कन्फ्यूशियस पर उनके दर्शन का गहरा प्रभाव पड़ा।
उन्हंे आखिरी बार उस समय देखा गया जब वे एक यात्रा के दौरान क्वानयिन दर्रे से बाहर निकल रहे थे। वहां से निकलते वक्त नाके पर खड़े टोलटैक्स अधिकारी या द्वारपाल ने उनसे टैक्स मांगा, धन के अर्थ से परे उस महापुरुष ने उस व्यक्ति को अपने 644 बोध वचनों से समृद्ध किया।
यह किस्सा कुछ वैसा ही जैसा श्री राम के नदी पार करने पर केवल द्वारा मांगा गया शुल्क, जिसके बदले में वे संसार को तारने वाले वचन कहें।
‘लाओत्से’ का अर्थ ‘बूढ़ा दार्शनिक’ होता है, इसके अतिरिक्त एक और अर्थ निकलता है ‘‘बूढ़ा बच्चा’’। उनके ही ये शब्द उनकी छवि गढ़ते हैं:
”जो मूर्तिमान धर्म बन गया, वह छोटे बच्चे जैसा होता है। बिच्छू उसे नहीं डसता, जंगली पशु उस पर नहीं झपटता और हिंस्र पक्षी उसे चोंच नहीं मारता।
उसमें शक्ति और उत्साह मानो उमड़ता रहता है। फिर भी उसे अपने स्त्रीत्व या पुरुषत्व का भान नहीं रहता।“
मुझे जानने वाले इने गिने ही हैं। मेरी कृतियों में श्रेष्ठ धर्म निहित है।
मेरे शब्दों को समझना और उन पर आचरण करना सरल है, फिर भी कोई उसे समझने या आचरण करने में समर्थ नहीं।
ताओ हद्य परिवर्तन का धर्म है। यह दिव्यता का अनुवर्तन है।
सारी दुनिया कुबूल करती है कि ताओ मार्ग श्रेष्ठ है लेकिन यह भी कहती है कि वह बेकार है।
जिस कारण वह बेकार मालूम पड़ता है, वही उसकी श्रेष्ठता है।
यह भी निश्चित नहीं कि यह अक्षरशः लाओत्से के ही शब्द हैं या उस द्वारपाल के अपने शब्दों में लाओत्से के वचनों का भाव अंकित है। बाद में इन वचनों को 81 प्रकरणों में बांटा और उनका नामकरण किया गया। इस ग्रंथ को “ताओ तेह” नाम दिया गया।
लाओत्से के बोधवचनों के वास्तविक भाष्यकार च्युंगत्सी हैं। च्युंगत्सी (सू) ने लाओत्से के वचनों को एक दर्शन के रूप में विश्व को दिया। ताओ मार्ग के अनुयायियों की संख्या बढ़ी और कालांतर में यह एक धर्म ग्रंथ ‘‘ताओ तेह किंग’’ के नाम से पुकारा जाने लगा।
ताओ का अर्थ वेदों के ओंकार के समान है।
लाओत्से के अनुसार -
मैं उसका नाम नहीं जानता, वह तत् है। ताओ में चाहे जो डालिये वह बढ़ेगा नहीं और जितना निकाल लें उसमें कुछ कमी नहीं होती।
यह अर्थ भी उपनिषद के श्लोक - पूर्णमिदं पूर्णमादाय पूणात्मुच्यते......... के समान है।
तेह का अर्थ सहज प्रकाश का प्रकट होने का मार्ग है। ताओ में जानबूझकर, सआयास कुछ करना पाप का मूल माना गया है। इसलिए लाओत्से ने इसे एक धर्म का नाम भी नहीं दिया गया।
लाओत्से पूछता है -
क्या फूल को अपने अंदर खुशबू भरनी या उसके लिए कोशिश करनी पड़ती है? वह सहज रूप में ही अपना जीवन बिताता है।
लोग कहते हैं कि वो सुगंध देता है लेकिन यह तो फूल का स्वभाव है, इसके लिए वह कर्ता नहीं।
लाओत्से कहते हैं यह ”गुण प्रकाश” का मार्ग है।
मनुष्य का सबसे बड़ा धन या साम्राज्य वासनाशून्य हो जाना है। इसके लिए श्रम की जरूरत ही कया है?
क्योंकि ‘कुछ करना चाहिए’ इस भावना को त्यागना है। कुछ होने की भावना से निवृत्ति ही सबसे बड़ा कर्म है।
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साभार: उपरोक्त सामग्री ताओ उपनिषद्, मराठी अनुवाद - मनोहर दिवाण, मराठी से हिन्दी अनुवाद - गोविन्द नरहरि वैजापुरकर, प्रकाशक: सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट वाराणसी से साभार ली जा कर राजेशा द्वारा सरल-सहजीकरण और मूल अर्थों तक पहुँच के भाव से संपादित है।
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Saturday, August 29, 2009
पतंजलि योगसूत्र, समाधिपाद अध्याय, सूत्र-5, 6, 7
सूत्र 5
वृत्तयः पंचतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।
वृत्तियाँ पाँच प्रकार की होती हैं तथा उनमें से कुछ क्लिष्ट और अन्य अक्लिष्ट होती हैं।
क्लिष्ट का अर्थ इन वृत्तियों के उलझनभरे होने की शक्ति से है। यानि मन की कुछ बातें तो आसानी से समझ आ जाती हैं पर ‘कुछ समझ आती लगती‘ होने पर भी समझ नहीं आती।
यही वर्तमान आधुनिक मनोविज्ञान की कठिनाई है। कई मनोरोगों को समझने में अभी भी कठिनाई आती है। कभी कभी तो यह भी समझ नहीं आता कि यह शारीरिक है अथवा मानसिक।
......................................................................................................................................
सूत्र 6
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।
वृत्तियाँ पाँच प्रकार की होती हैं - प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति।
1. प्रमाण - यानि प्रमाणित, सत्य, सच्ची एक दूसरा अर्थ घटने और बढ़ने वाली
2. विपर्यय - विपर्यय यानि जो पर्याय नहीं है झूठ, असत्य
3. विकल्प - काल्पनिक मात्र
4. निद्रा - गहरी नींद
5. स्मृति - स्मरण, यादें
......................................................................................................................................
सूत्र 7
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।
प्रमाण वृत्ति के तीन भेद हैं: प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम।
- प्रत्यक्ष होना,साक्षात् होना पहला उपाय है।
- अनुमान, अंदाजे से ज्ञान
- आगम, यानि अतीत से प्राप्त ज्ञान, पूर्व से आया ज्ञान।
वृत्तयः पंचतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।
वृत्तियाँ पाँच प्रकार की होती हैं तथा उनमें से कुछ क्लिष्ट और अन्य अक्लिष्ट होती हैं।
क्लिष्ट का अर्थ इन वृत्तियों के उलझनभरे होने की शक्ति से है। यानि मन की कुछ बातें तो आसानी से समझ आ जाती हैं पर ‘कुछ समझ आती लगती‘ होने पर भी समझ नहीं आती।
यही वर्तमान आधुनिक मनोविज्ञान की कठिनाई है। कई मनोरोगों को समझने में अभी भी कठिनाई आती है। कभी कभी तो यह भी समझ नहीं आता कि यह शारीरिक है अथवा मानसिक।
......................................................................................................................................
सूत्र 6
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।
वृत्तियाँ पाँच प्रकार की होती हैं - प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति।
1. प्रमाण - यानि प्रमाणित, सत्य, सच्ची एक दूसरा अर्थ घटने और बढ़ने वाली
2. विपर्यय - विपर्यय यानि जो पर्याय नहीं है झूठ, असत्य
3. विकल्प - काल्पनिक मात्र
4. निद्रा - गहरी नींद
5. स्मृति - स्मरण, यादें
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सूत्र 7
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।
प्रमाण वृत्ति के तीन भेद हैं: प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम।
- प्रत्यक्ष होना,साक्षात् होना पहला उपाय है।
- अनुमान, अंदाजे से ज्ञान
- आगम, यानि अतीत से प्राप्त ज्ञान, पूर्व से आया ज्ञान।
Thursday, August 27, 2009
पतंजलि योगसूत्र, समाधिपाद अध्याय, सूत्र-4
।। वृत्तिसारूप्यमितरत्र
।।
पतंजलि का तीसरे सूत्र के अर्थअनुक्रम में चौथे सूत्र के अनुसार, उस समय दृष्टा पुरुष की चित्त-वृत्तियों से ही सारूप्यता रहती है।
तीसरे सूत्र में कहा गया कि योग चित्त की वृत्तियों का निरोधोपरांत दृष्टा पुरुष अपने मूल स्वरूप में स्थित रहता है। इस सूत्र में उससे आगे की बात है कि यदि चित्त की वृत्तियों का निरोध नहीं किया जाता। चित्त की वृत्तियों को यथार्थतः नहीं जान लिया जाता है तो ये वृत्तियाँ ही चेतनापुरुष के चित्त पर हावी होकर कर्ताधर्ता बनी दिखती हैं। उस समय दृष्टा यानि चेतनापुरुष के चित्त की वृृत्तियों से एकरूपता रहती है।
सांख्य तथा योगदर्शन अनुसार चेतनापुरूषतत्व अनादि, अकर्ता, अहेतुक, अपरिणामी है। शरीर मन या चित्त से इसका संयोग ही माया है।
।।
पतंजलि का तीसरे सूत्र के अर्थअनुक्रम में चौथे सूत्र के अनुसार, उस समय दृष्टा पुरुष की चित्त-वृत्तियों से ही सारूप्यता रहती है।
तीसरे सूत्र में कहा गया कि योग चित्त की वृत्तियों का निरोधोपरांत दृष्टा पुरुष अपने मूल स्वरूप में स्थित रहता है। इस सूत्र में उससे आगे की बात है कि यदि चित्त की वृत्तियों का निरोध नहीं किया जाता। चित्त की वृत्तियों को यथार्थतः नहीं जान लिया जाता है तो ये वृत्तियाँ ही चेतनापुरुष के चित्त पर हावी होकर कर्ताधर्ता बनी दिखती हैं। उस समय दृष्टा यानि चेतनापुरुष के चित्त की वृृत्तियों से एकरूपता रहती है।
सांख्य तथा योगदर्शन अनुसार चेतनापुरूषतत्व अनादि, अकर्ता, अहेतुक, अपरिणामी है। शरीर मन या चित्त से इसका संयोग ही माया है।
Tuesday, August 25, 2009
पतंजलि योगसूत्र, समाधिपाद अध्याय, सूत्र-3
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽस्थानम्।
उस समय द्रष्टा अपने मूल स्वरूप में स्थित होता है।
दूसरे सूत्र के अनुक्रम में यह सूत्र कहता है - कि जब चित्त की वृत्तियाँ, उसके धंधें कहाँ-कहाँ तक फैले हुए हैं यह जान जाता है तो दृष्टा अपने मूल स्वरूप में स्थित होता है।
उस समय द्रष्टा अपने मूल स्वरूप में स्थित होता है।
दूसरे सूत्र के अनुक्रम में यह सूत्र कहता है - कि जब चित्त की वृत्तियाँ, उसके धंधें कहाँ-कहाँ तक फैले हुए हैं यह जान जाता है तो दृष्टा अपने मूल स्वरूप में स्थित होता है।
पतंजलि योगसूत्र सूत्र क्र. 2
।। योगश्चवृत्ति निरोधः।।
चित्त की वृत्तियों का रोध करना, रोकना योग है - यह सामान्य अर्थ है।
दूसरे सूत्र में वह किसी भी आदमी के व्यक्तित्व का वो सिरा पकड़ते हैं जिससे उसके सारे जीवन को समझा जा सकता है। चित्त वृत्तियां - आदतें किसी भी शख्सीयत का एक सिरा है। सामान्यतः आदतों से ही एक आदमी जाना पहचाना जाता है। सारे विभाजन, विघटन या भेद आदतों के कारण हैं।
जो भी व्यक्ति जिस रूप में जाना जाता है वह उसकी आदते हैं। हिन्दू मुसलमान सिख ईसाई होना धार्मिक आदते हैं।
कलाकार, शिक्षक, प्रबंधक, इंजीनियर, वैज्ञानिक, साधु, पंडित ये उनकी रोजमर्रा की कार्मिक आदतें हैं। लोकतंत्रवादी, कांग्रेसी, बीजेपी वाला, समाजवादी, पंूजीवादी ये वैचारिक आदतें हैं। कला, संगीत, दर्शन भी प्राथमिक रूप में आदते ही हैं।
चित्त पर वृत्तियाँ लोहे पर जमे जंग जैसी हैं। अगर लोहे के किसी टुकड़े को प्रयोग हेतु किसी अन्य लोहे के ही यंत्र से जोड़ना है तो उन दोनों के बीच जंग की परत हटानी होगी ताकि वो अच्छी तरह जुड़ सकें, एकाकार हो सकें।
इस सूत्र में कहा गया कि ‘‘चित्त की वृत्तियों का...’’ ‘वृत्ति‘ शब्द का हिन्दी अर्थ ‘धंधा‘ होता है। मन के धंधों के बारे में जानना योग का प्रथम चरण है।
दूसरा शब्द निरोधः का आशय रोधना, रोकना है। इस शब्द को रूढ़ अर्थों में न लेकर विवेकपूर्वक समझना होगा।
आप टेªन या हवाई जहाज से यात्रा करते हैं तो आपने देखा होगा कि एक मोशन फिल्म की तरह कई दृश्य आते जाते दिखते हैं। आनंद आता है। लेकिन मंजिल पर जाकर कोई पूछे कि रास्ते में क्या देखा तो उसके उत्तर में हम कुछ स्पष्ट नहीं कह सकते। बहुत कुछ नजर आता है हरे भरे मंजर, सूखे इलाके, बदबूदार क्षेत्र, सुरंगे, नीले बादल, पानी से भरी नदियां तालाब, सड़ते हुए दलदल।
लेकिन यदि हम पैदल यात्रा पर निकलें और कई स्थानों पर ठहर ठहर पड़ावों में यात्रा करें तो हम पूरी यात्रा का वर्णन; दृश्यों और अनुभवों को शब्दशः लिख सकते हैं।
निरोधः शब्द का आशय यही लगता है। मन की आदतों को रुककर, ठहरकर देखना उनको जानना और उनसे छूट जाना योग है।
वृत्ति से बना एक शब्द है निवृत्ति। किसी चीज से निवृत्त होना यानि छूटना, मुक्त होना, आपने रिटायरमेंट के लिए सेवानिवृत्ति शब्द सुना ही होगा। इस रूप में देखें तो वृत्ति एक अर्थ में बंधना है। वृत्ति या धंधा यानि एक बंधन।
तो चित्त की वृत्ति यानि चित्त की आदतों, धंधों, बंधनों को रोकना, ठहर कर देखना और निवृत्त हो जाना यह पतंजलि के दूसरे सूत्र के प्राथमिक अर्थ हैं।
चित्त और मन दो अलग बातें हैं।
चित्त शब्द चित् से बना है। जहाँ चेतना का प्रसार होता है चित्त है।
मन चित्त का एक अंश मात्र है।
चित्त अन्य अवस्थाओं में अवचेतन सककान्शस, अबोध अनकान्शस और इसके अतिरिक्त भारतीय दर्शन के अनुसार चिदाकाश या अधिचित्प्रदेश सुप्राकान्शस स्फियर भी है जिसमें शब्दातीत की अनुभूति है।
चित्त की वृत्तियों का रोध करना, रोकना योग है - यह सामान्य अर्थ है।
दूसरे सूत्र में वह किसी भी आदमी के व्यक्तित्व का वो सिरा पकड़ते हैं जिससे उसके सारे जीवन को समझा जा सकता है। चित्त वृत्तियां - आदतें किसी भी शख्सीयत का एक सिरा है। सामान्यतः आदतों से ही एक आदमी जाना पहचाना जाता है। सारे विभाजन, विघटन या भेद आदतों के कारण हैं।
जो भी व्यक्ति जिस रूप में जाना जाता है वह उसकी आदते हैं। हिन्दू मुसलमान सिख ईसाई होना धार्मिक आदते हैं।
कलाकार, शिक्षक, प्रबंधक, इंजीनियर, वैज्ञानिक, साधु, पंडित ये उनकी रोजमर्रा की कार्मिक आदतें हैं। लोकतंत्रवादी, कांग्रेसी, बीजेपी वाला, समाजवादी, पंूजीवादी ये वैचारिक आदतें हैं। कला, संगीत, दर्शन भी प्राथमिक रूप में आदते ही हैं।
चित्त पर वृत्तियाँ लोहे पर जमे जंग जैसी हैं। अगर लोहे के किसी टुकड़े को प्रयोग हेतु किसी अन्य लोहे के ही यंत्र से जोड़ना है तो उन दोनों के बीच जंग की परत हटानी होगी ताकि वो अच्छी तरह जुड़ सकें, एकाकार हो सकें।
इस सूत्र में कहा गया कि ‘‘चित्त की वृत्तियों का...’’ ‘वृत्ति‘ शब्द का हिन्दी अर्थ ‘धंधा‘ होता है। मन के धंधों के बारे में जानना योग का प्रथम चरण है।
दूसरा शब्द निरोधः का आशय रोधना, रोकना है। इस शब्द को रूढ़ अर्थों में न लेकर विवेकपूर्वक समझना होगा।
आप टेªन या हवाई जहाज से यात्रा करते हैं तो आपने देखा होगा कि एक मोशन फिल्म की तरह कई दृश्य आते जाते दिखते हैं। आनंद आता है। लेकिन मंजिल पर जाकर कोई पूछे कि रास्ते में क्या देखा तो उसके उत्तर में हम कुछ स्पष्ट नहीं कह सकते। बहुत कुछ नजर आता है हरे भरे मंजर, सूखे इलाके, बदबूदार क्षेत्र, सुरंगे, नीले बादल, पानी से भरी नदियां तालाब, सड़ते हुए दलदल।
लेकिन यदि हम पैदल यात्रा पर निकलें और कई स्थानों पर ठहर ठहर पड़ावों में यात्रा करें तो हम पूरी यात्रा का वर्णन; दृश्यों और अनुभवों को शब्दशः लिख सकते हैं।
निरोधः शब्द का आशय यही लगता है। मन की आदतों को रुककर, ठहरकर देखना उनको जानना और उनसे छूट जाना योग है।
वृत्ति से बना एक शब्द है निवृत्ति। किसी चीज से निवृत्त होना यानि छूटना, मुक्त होना, आपने रिटायरमेंट के लिए सेवानिवृत्ति शब्द सुना ही होगा। इस रूप में देखें तो वृत्ति एक अर्थ में बंधना है। वृत्ति या धंधा यानि एक बंधन।
तो चित्त की वृत्ति यानि चित्त की आदतों, धंधों, बंधनों को रोकना, ठहर कर देखना और निवृत्त हो जाना यह पतंजलि के दूसरे सूत्र के प्राथमिक अर्थ हैं।
चित्त और मन दो अलग बातें हैं।
चित्त शब्द चित् से बना है। जहाँ चेतना का प्रसार होता है चित्त है।
मन चित्त का एक अंश मात्र है।
चित्त अन्य अवस्थाओं में अवचेतन सककान्शस, अबोध अनकान्शस और इसके अतिरिक्त भारतीय दर्शन के अनुसार चिदाकाश या अधिचित्प्रदेश सुप्राकान्शस स्फियर भी है जिसमें शब्दातीत की अनुभूति है।
Monday, August 24, 2009
पतंजलि योगसूत्र का सूत्र - 1
पतंजलि योगसूत्र का सूत्र - 1
।। अथ योगानुशासनम्।।
मेरी समझ से योग सूत्र का मतलब ‘जुड़ने के सूत्र’, जुड़ने के तरीकों या उपायों से है।
किससे बिछड़े या छूट गये हैं हम? किससे अलग होकर हम इस तरह की दशा में बचे हैं? किससे वापस जुड़ना है? इन प्रश्नों के उत्तरों की तलाश हमें ‘योग’ शब्द के अर्थों को समझने का आधार देगी।
अथ योगानुशासनम। अब योग अनुशासन। अथ यानि अब? यह एक प्रश्न की तरह है कि अब क्या? अब तक जैसे भी जिए टूटे टूटे थे, जुड़े नहीं थे। अब खुद से जुड़ने के लिए बाहरी, अन्य के नहीं अपने कायदे कानून। अपना अनुशासन, अपने लिए।
अब योग अनुशासन, इस वाक्य से यह भी समझना चाहिए कि चलो अब तैयार हों उस मार्ग पर चलने के लिए जो जोड़ता है।
जो इस सूत्र में नहीं कहा गया पर जो ‘अथ’ या ‘अब’ का मतलब है - कि, अब समय निकाला जाएगा खुद से जुड़ने के लिए। वैसे ही जैसे हम बाहर से जुड़े हैं। जैसे बीवी बच्चों, पैसे कमाने को 8 -10-12 घंटे देते हैं। वैसे ही समय दे खुद को। अपने शरीर, मन, दिल-दिमाग को।
बाहर किसी व्यक्ति से जुड़ना हो, उसे समझना-जानना हो तो उसे समय देना पड़ता है। लेकिन आदमी की अपने बारे में यह सबसे बड़ी भ्रांति होती है कि वह अपने आपको जानता-समझता है। निश्चित ही अपने को जानने समझने वाले और ही तरह के लोग होते हैं।
तो अपने से जुड़ने के लिए समय निकालना होगा वैसे ही जैसे आप रोज समय निकालते हैं समाचार पत्र पड़ने, टीवी चैनल्स देखने और अपनी मनपसंद हर बात करने के लिए।
हिन्दी भाषा में योग सूत्रों की सम्पूर्ण श्रंखला तक चलने वाले हमारे सफर में आप भी सहयात्री बनें। निरंतर पढ़ें - योगमार्ग डाॅट ब्लाॅगस्पाट डाॅट काॅम
अब योगानुशासन। शब्दों को सुनना चाहिये, उन पर ध्यान देना चाहिए। मनन करना चाहिए कि जिसने वह शब्द कहे उसकी मंशा और अनुभव, उन शब्दों का यथार्थ क्या रहा होगा।
अब योगानुशासन; ये शब्द यह भी कहते हैं कि जब कुछ सीखा जाए तो पूर्णतः समग्रतः उसी को समर्पित हुआ जाए।
आज के लोग दो-चार नावों पर इकट्ठा सवार हो जाते हैं, फिर कहीं के नहीं रहते।
दूसरा, जिज्ञासा, प्रश्नों को उठने से नहीं रोकना चाहिए। जिज्ञासा, प्रश्नों का उठना आदमी के जिंदा रहने की निशानियां हैं और उसकी ताजा जिन्दगी की सुबूत भी।
पतंजलि का पहला सूत्र भूमिका की तरह है। तो ‘योग अनुशासन’ इन दो शब्दों को गहराई से पढ़ने की मनन करने की जरूरत है, ताकि योग की समझ बने।
।। अथ योगानुशासनम्।।
मेरी समझ से योग सूत्र का मतलब ‘जुड़ने के सूत्र’, जुड़ने के तरीकों या उपायों से है।
किससे बिछड़े या छूट गये हैं हम? किससे अलग होकर हम इस तरह की दशा में बचे हैं? किससे वापस जुड़ना है? इन प्रश्नों के उत्तरों की तलाश हमें ‘योग’ शब्द के अर्थों को समझने का आधार देगी।
अथ योगानुशासनम। अब योग अनुशासन। अथ यानि अब? यह एक प्रश्न की तरह है कि अब क्या? अब तक जैसे भी जिए टूटे टूटे थे, जुड़े नहीं थे। अब खुद से जुड़ने के लिए बाहरी, अन्य के नहीं अपने कायदे कानून। अपना अनुशासन, अपने लिए।
अब योग अनुशासन, इस वाक्य से यह भी समझना चाहिए कि चलो अब तैयार हों उस मार्ग पर चलने के लिए जो जोड़ता है।
जो इस सूत्र में नहीं कहा गया पर जो ‘अथ’ या ‘अब’ का मतलब है - कि, अब समय निकाला जाएगा खुद से जुड़ने के लिए। वैसे ही जैसे हम बाहर से जुड़े हैं। जैसे बीवी बच्चों, पैसे कमाने को 8 -10-12 घंटे देते हैं। वैसे ही समय दे खुद को। अपने शरीर, मन, दिल-दिमाग को।
बाहर किसी व्यक्ति से जुड़ना हो, उसे समझना-जानना हो तो उसे समय देना पड़ता है। लेकिन आदमी की अपने बारे में यह सबसे बड़ी भ्रांति होती है कि वह अपने आपको जानता-समझता है। निश्चित ही अपने को जानने समझने वाले और ही तरह के लोग होते हैं।
तो अपने से जुड़ने के लिए समय निकालना होगा वैसे ही जैसे आप रोज समय निकालते हैं समाचार पत्र पड़ने, टीवी चैनल्स देखने और अपनी मनपसंद हर बात करने के लिए।
हिन्दी भाषा में योग सूत्रों की सम्पूर्ण श्रंखला तक चलने वाले हमारे सफर में आप भी सहयात्री बनें। निरंतर पढ़ें - योगमार्ग डाॅट ब्लाॅगस्पाट डाॅट काॅम
अब योगानुशासन। शब्दों को सुनना चाहिये, उन पर ध्यान देना चाहिए। मनन करना चाहिए कि जिसने वह शब्द कहे उसकी मंशा और अनुभव, उन शब्दों का यथार्थ क्या रहा होगा।
अब योगानुशासन; ये शब्द यह भी कहते हैं कि जब कुछ सीखा जाए तो पूर्णतः समग्रतः उसी को समर्पित हुआ जाए।
आज के लोग दो-चार नावों पर इकट्ठा सवार हो जाते हैं, फिर कहीं के नहीं रहते।
दूसरा, जिज्ञासा, प्रश्नों को उठने से नहीं रोकना चाहिए। जिज्ञासा, प्रश्नों का उठना आदमी के जिंदा रहने की निशानियां हैं और उसकी ताजा जिन्दगी की सुबूत भी।
पतंजलि का पहला सूत्र भूमिका की तरह है। तो ‘योग अनुशासन’ इन दो शब्दों को गहराई से पढ़ने की मनन करने की जरूरत है, ताकि योग की समझ बने।
Sunday, August 23, 2009
खुदा और दुआ
खुदा और दुआ पर्यायवाची है। दुआ पूरी हो जाए तो खुदा मिल जाता है। खुदा मिल जाए तो दुआ पूरी हो जाती है।
समझने की बात है, दोनों वाक्यों के अर्थ एक जैसे लगते हैं पर दोनों वाक्यों का अस्तित्व अपने आप में है। इनका सम्पन्न होना, समझने की बात है।
दुआ करने वाला आदमी है। जिससे दुआ की जा रही है वो खुदा है। आदमी दुआ करता है कि मेरा भला हो जाए। तो दुआ में कहा गया एक विचार है कि ‘मेरा भला हो’। दुआ कर आदमी हाथ पर हाथ धर तो नहीं बैठ जाता, सब कुछ खुदा पर तो नहीं छोड़ देता,, साथ-साथ कुछ न कुछ तो करता है।
दुआ में कहे गए वाक्य की दिशा के समानान्तर कर्म करता है। बुराई से बचता है, भला करता है। जितनी संवेदना और शिद्दत से वह दुआ करता है, दुआ आकार लेने लगती है। पहले पहल नगण्य सा, फिर अधूरा और फिर पूरा होता हुआ आकार। पहले बुराई से बचता है, फिर भले की कोशिश करता है, फिर भला बनता है। फिर बनता नहीं, अपने आप भला होने लगता है। संवेदना और त्वरितता बढ़ते बढ़ते दुआ पूरा आकार ले लेती है। आदमी भला हो जाता है, दुआ पूरी हो जाती है।
क्या आदमी भला हो जाए तो, फिर किसी खुदा की जरूरत रह जाती है?
समझने की बात है, दोनों वाक्यों के अर्थ एक जैसे लगते हैं पर दोनों वाक्यों का अस्तित्व अपने आप में है। इनका सम्पन्न होना, समझने की बात है।
दुआ करने वाला आदमी है। जिससे दुआ की जा रही है वो खुदा है। आदमी दुआ करता है कि मेरा भला हो जाए। तो दुआ में कहा गया एक विचार है कि ‘मेरा भला हो’। दुआ कर आदमी हाथ पर हाथ धर तो नहीं बैठ जाता, सब कुछ खुदा पर तो नहीं छोड़ देता,, साथ-साथ कुछ न कुछ तो करता है।
दुआ में कहे गए वाक्य की दिशा के समानान्तर कर्म करता है। बुराई से बचता है, भला करता है। जितनी संवेदना और शिद्दत से वह दुआ करता है, दुआ आकार लेने लगती है। पहले पहल नगण्य सा, फिर अधूरा और फिर पूरा होता हुआ आकार। पहले बुराई से बचता है, फिर भले की कोशिश करता है, फिर भला बनता है। फिर बनता नहीं, अपने आप भला होने लगता है। संवेदना और त्वरितता बढ़ते बढ़ते दुआ पूरा आकार ले लेती है। आदमी भला हो जाता है, दुआ पूरी हो जाती है।
क्या आदमी भला हो जाए तो, फिर किसी खुदा की जरूरत रह जाती है?
Wednesday, August 19, 2009
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